आनन्दी अपने माता-पिताकी एकमात्र संतान थी पिता (जागीरदार थे। घर सम्पन्न था। एकमात्र संतान होने के कारण आनन्दीका पालन-पोषण बड़े ही लाइ चावसे हुआ था। उसके माता-पिता सदा उसके मुखकी ओर ही देखा करते और बिना विलम्ब उसकी प्रत्येक इच्छाको पूर्ति होती माता-पिता सद्गृहस्थ थे। अच्छे परानेके थे। घरमें प्रतिदिन कथा होती। अतः कन्याको वे शिक्षित तथा सद्गुणवती बनाने की भी सहज ही चेष्टा करते।
फलतः आनन्दीमें शिक्षा तथा सद्गुणोंका समावेश हो गया। वे आनन्दीका विवाह किसी ऐसे सद्गुण- सम्पन्न लड़केसे करना चाहते थे जो अच्छे घरानेका हो और जिसके घरमें सब सदाचारी तथा भले लोग हों। बहुत खोजके बाद देहातमे एक लड़का मिला। लड़का पढ़ा-लिखा, सुन्दर, काम करनेवाला बुद्धिमान् तथा प्रगतिशील था। घर भी अच्छा, सम्पन्न था। उसके एक बड़ी विवाहिता बहन थी तथा माता-पिता थे। कारोबार करते थे अनाजका । खेती भी थी।
विवाह हो गया। आनन्दी ससुराल गयी। बड़ा आदर- सत्कार हुआ। सास-ससुरने अपनेको धन्य माना सुन्दरी सद्गुणवती बहू पाकर पतिने भी बड़ा प्यार किया। ननद सुभद्रा बड़ी अच्छी थी, उसका हृदय प्रेमसे भरा था। पर इन दिनों वह कुछ गम्भीर थी। पता नहीं, किस चिन्तामें रहती । स्वभावसे ही वह कम बोलती। नयी भाभीका उसने स्नेहसे स्वागत तो किया; पर फिर वह अपनी चिन्तामें लग गयी। वह बहुत कम बोलती । अलग कमरेमें रहती, उसके चेहरेपर उदासी तथा बर्तावमें कुछ अनिच्छित सी रुखाई थी।
आनन्दी ऐसे वातावरण में पली थी कि इसने ननदके इस व्यवहारको अभिमान और अपना अपमान मान लिया। वह मन-ही-मन बहुत उदास रहने लगी। वह अपनी उदासी प्रकट नहीं करती, पर मन-ही-मन कुढ़ती मनकी चीज बाहर आती ही है। वह मनकी उदासी कुछ-कुछ क्रोधके रूपमें बाहर आ गयी। वह समय-समयपर अकारण ही खीझने लगी। चतुर सासने उसे नैहर भिजवा दिया।
नेहरमें आकर उसने अपनी माँसे सब बतलाया भी बड़ी बुद्धिमती थी। उसने किसी बहाने एक बार सुभद्राको अपने यहाँ बुलाकर उसे सब बातें समझायाँ वह तो भली थी ही 1 इधर आनन्दी भी बहुत भली यो गैर-समझ हो गयी थी। दुःख बढ़ा जा रहा था और अनर्थकी सीमा तक पहुँच गया था सुभद्रा सब समझ गयी। उसने भाभी आनन्दीके पास जाकर अपनी भूल स्वीकार की और उसको अपनी परिस्थिति बतलायी। उसने कहा-‘ ‘भली भाभी मेरा एकमात्र लड़का सुधीरकुमार शिक्षा पानेके लिये विदेश गया था।
वह दो वर्ष वहाँ रहनेवाला था। उसे साढ़े चार वर्ष हो गये जब तुम्हारा विवाह हुआ था। उसके कुछ ऐसे समाचार आये थे कि मैं किसीसे कह भी नहीं सकती थी और मेरा चित्त अत्यन्त अशान्त तथा चिन्ताग्रस्त रहता था मुझे बार-बार झुंझलाहट आया करती। इसीसे मैं ससुरालसे मौके पास आ गयी थी । मेरे पति बाहर नौकरी करते हैं मेरी सास कुछ कड़े स्वभावकी है। मैंने सोचा बात बता नहीं सकती और कभी झुंझला उठूगी तो सास और नाराज हो जायेंगी।
जब तुम आयो थी, उस समय मेरी चिन्ताका मध्याह था। मैं बहुत मानस व्यथामें थी पर अपनी व्यथा छिपाये रखती, इसीसे अलग रहती और इसीसे तुमसे भी खुलकर कभी बात नहीं कर पायी। अब तुम्हारी माताने मुझको बुलाकर सब समझाया, तब मुझे अपनी भूलका पता लगा। तुम तो मेरी बेटीके समान हो। मुझे माफ करो अब तो सुधीरका पत्र भी आ गया है। उसकी समस्या भी सुलझ गयी है। वह अगले महीने लौट आयेगा।’ यो कहकर सुभद्रा रोने लगी।
भली आनन्दीकी भी आँखों आँसू आ गये। उसने रोते हुए कहा ‘बाईजी! मैं बहुत भूलमें थी। मैंने मान लिया था. कि आप अभिमानवश मेरा तिरस्कार करती है। मैं घरमें आपको सुहाती नहीं। मैं कहीं मालकिन न बन जाऊँ, इसीसे आप मुझसे डाह करती हैं-न मालूम ऐसे कितने बुरे विचार आये। मैंने मन-ही-मन सोचा मैं निर्दोष हूँ। ननदजीका आदर करती हूँ। पर ये अकारण ही मुझसे नाराज रहती तथा डाह करती है। में यदि इस बातको प्रकट करती हूँ तो मेरे पति इनके भाई हैं, इनका बहुत आदर करते हैं और मेरी सास तो इनकी माता ही है वे दोनों मुझपर अप्रसन्न हो ।
जायेंगे। आपके भाई मुझे उदास देखकर बहुत दुख होते समझाते पर मेरे मनमें कोई बात बैठती ही नहीं। मैंने य कर लिया था कि इस जीवनसे मृत्यू अ | अब मैं आत्महत्या कर लूंगी। मैंने अपने माता-पिताकोभी कुछ नहीं लिखा यह अच्छा हुआ कि सासजीने मुझे यहाँ भवा दिया। मैंने माँसे सब बात कह दी और मोने आपको यहाँ बुला लिया। अब आपकी बात सुनकर मुझे बड़ा पञ्चात्ताप हो रहा है। मैं व्यर्थ ही आपपर गलत संदेह कर बैठी। मुझे आप क्षमा करें। बड़ा अनर्थ होने जा रहा था।
भगवान्ने रक्षा को वो कहकर आनन्दीने रोते हुए ननद सुभद्राके पैर पकड़ लिये। बुद्धिमती सुभद्रा तो स्वयं दुखी थी। उसने कहा- नहीं भाभी मेरा ही दोष है। तू तो बच्ची थी। बड़े लाड़-चाबसे पली थी। मैंने ही यह बड़ी भूल की जो तुझसे रुखाईका बर्ताव किया। मनुष्यको यहाँ बहुत सावधान रहना चाहिये और घरमें नयी आयी बहूसे तो जो माता-पिताको, नैहरको स्वच्छन्दता- स्वतन्त्रताको, भाई-बहनोंके प्यार-दुलारको लड़कपनकी उछल-कूद तथा अल्हड़पनको तथा उन्मुक्त हँसीभरे जीवनको छोड़कर बिलकुल नये घरमे अपनेको खपाने आयी है, उसके साथ तो विशेष सावधानीके साथ आदर-सत्कार, स्नेह-प्रेम और नितान्त आत्मीयता मैत्रीका बर्ताव करना चाहिये।
उसे खूब हंसाना तथा प्रसन्न रखना चाहिये, जिससे वह अपनेको अकेली अनुभव करके मन-ही-मन दुखी न हो। संकोचमे पड़कर आत्माको गिरावे नहीं। वह प्रफुल्लित रहे। उसके उत्साहका – साहसका विकास हो तथा सहम संकोचका विनाश हो वह सहज ही इस नये घरको अपना घर मानकर निस्संकोच उसकी सार-संभालमें लग जाय और सबके साथ सहज ही हिल-मिलकर घरमें तुरंत खप जाय।
घरमें सभी लोगोंको सास, जेठानियाँ, ननदे तथा ससुर, जेठ देवर सभीको सावधानीके साथ निर्दोष स्नेह, दुलारका तथा मान- सम्मानयुक्त आत्मीयताका बर्ताव करना चाहिये। कदाचित् उसके रूप गुणोंमें कमी हो तो भी उसकी जरा भी बात जवानपर नहीं लानी चाहिये। उसके माता-पिता आदिके सम्बन्धमें जरा भी नीची बात कभी भी नहीं कहनी चाहिये।
पति को तो विशेषरूपसे उसे प्यार देना चाहिये । ‘नयी बहूको सास-ननदे अपने सद्व्यवहारसे साक्षात् लक्ष्मी बना सकती है और दुर्व्यवहारसे उसमें राक्षसीपनका उदय कर सकती है। बहन आनन्दी तुम तो आनन्दी हो हो। साक्षात् लक्ष्मी हो। मेरी भूल क्षमा करो।’
सुभद्राको बातें सुन-सुनकर आनन्दीकी माँ रो रही थी। आनन्दी तो आनन्दमन थी, साथ ही अपनी भूलपर सकुचा रही थी। आनन्दीने कहा- “बाईजी आप तो देवता है। आपने तो मेरे अंदरके देवत्वको जगा दिया है। अब मैं अपनी भूल समझ रही हूँ।
क्या नयी बहूका यह कर्तव्य नहीं होता कि वह किसीपर संदेह न करके उसके हृदयको परखनेकी चेष्टा करे ? मैंने आपपर जो दोषबुद्धि को, वह क्या मेरा दोष नहीं था ? दोष तो था ही। मैं उसे छिपाये रखती। पर आपके स्नेहपूर्ण सद्व्यवहारने आपके सामने मुझे हृदय खोलकर सब बातें कहने का साहस दे दिया। आप क्षमा करें, मेरी भूलको भूल जायें।’
जहाँ दोनों ओरसे अपनी-अपनी भूल स्वीकार होती है और दूसरेकी भूल नहीं मानी जाती, वहाँ भूल नहीं रहती और प्रेमका सुधा सागर उमड़ पड़ता है। जहाँ केवल दूसरेको ही दोषी साबित करने की चेष्टा चलती है, वहाँ भूल बढ़ती जाती है और परिणाम अत्यन्त अनर्थकारी हो जाता है। यहाँ तो शुद्ध हृदय थे ही अँधेरेकी छाया आयी थी, वह भी दूर हो गयी। आनन्दीको उठाकर सुभद्राने हृदयसे लगा लिया। सब ओर आनन्द छा गया
सुभद्रा दो दिन रहकर अपने साथ ही आनन्दीको ले गयी। यह बात कुछ वर्षों पहलेकी है। आज तो आनन्दी कई संतानोंकी माता है। घरकी स्वामिनी है। सम्पन्न तथा सुखी है। उसका अपनी ननद तथा ननदके लड़के-लड़कियोंसे बड़ा ही अनोखा प्यार है। वह प्रौढ़ा ननदकी सलाह बिना कोई काम नहीं करती। बार-बार बुलाया करती हैं। सुभद्रा भी अत्यन्त प्रसन्न है। सुभद्राकी सुशीलता और आनन्दीकी सरलताने नरक बनते हुए घरको स्वर्ग बना दिया । धन्य !
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