मेरे एक आदरणीय मित्रने एक सच्ची घटना मुझे सुनाथी, जिसे उनके एक पुराने तहसीलदार मित्रने उनसे कहा था। तहसीलदारका एक नौकर था वह उनका खाना भी बनाता था, परंतु दाल सब्जीमें कभी नमक कम कभी ज्यादा डाल देता था, जिसके कारण तहसीलदार बहुत क्रोध करते थे ।
एक दिन तहसीलदार नौकर को साथ लेकर देहात के दौरपर गये। सायंकाल दरिसे जब तहसीलदार साहब लौटे तो थके होनेपर भी प्रसन्नमन थे हाथ-मुँह धोनेके बाद स्कूलके आँगनमें, जहाँ वे ठहरे हुए थे, पेड़के नीचे चारपाईपर बैठ गये और नौकरको खाना लानेके लिये कहा। नौकरने दाल-रोटी बड़े प्रेमसे बनायी थी ले आया। तहसीलदार साहब जब खाने लगे तो पहला ही ग्रास लेते आगबबूला हो गये। दालमें नमक बहुत अधिक था।
नौकरको गाली देते-देते रुक गये। और निश्चय किया कि मैं आज इसे अवश्य शिक्षा दूंगा। जैसे-तैसे उन्होंने भोजन किया। नौकरसे हुक्का मँगवानेके बाद उन्होंने उसे कहा कि ‘भई, अपना खाना तुम यहाँ ले आओ, मेरे पास बैठकर खा लो और देखो, दालमे नमक कुछ कम है।” नौकर अपना खाना ले आया और नमककी शीशी भी।
इसके बाद नौकरने यह समझकर कि तहसीलदार साहबको यदि नमक कम लगा है तो ज्यादा ही कम होगा, पूरा चम्मच भरकर नमक दालमें डाल लिया। तहसीलदारने देखा पहले ही नमक इतना अधिक था, सोचने लगे इतना डालनेके बाद यह खायेगा कैसे। परंतु वे चुप रहे, उन्हें तो सबक सिखाना था उसे नौकरने एक रोटी खायी, दो खायी, तीन खायी और बड़े मजेसे खाता रहा।
उसे खाने में इतना मन देख तहसीलदारसे न रहा गया, उन्होंने उससे पूछा- क्यों भई! तुम्हें दाल में नमक ज्यादा नहीं लगा।’ नौकर बड़े सहज भावसे कहने लगा-‘साहब। यह ज्यादा कम तो बड़े लोगोंके लिये है, मैं तो दालमें जब नमक ज्यादा होता है तो रोटीके टुकड़ेके साथ कम दाल लगा लेता हूँ और जब नमक कम होता है तो टुकड़ेके साथ ज्यादा लगा लेता हूँ, इससे मेरे लिये तो हमेशा खानेका एक ही जैसा स्वाद रहता है। तहसीलदार उस अनपढ़ एवं मंद बुद्धिको इस सहजतासे कही बातको सुनकर सोचने लगे—क्या समरस होना ही जीवनका गूढ़ रहस्य तो नहीं है।
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