महाशिव रात्रि का व्रत फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि में भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्माण्ड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया है।
महाशिवरात्रि व्रत का विधान
विधान : त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिन भर निराहार रहना पड़ता है। पत्र पुष्य तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके वेदी पर कलश की स्थापना करके गौरी शंकर की स्वर्ण मूर्ति तथा नंदी की चांदी की मूर्ति रखनी चाहिए। कलश को जल से भरकर रोली, मोली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, चंदन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेल पत्र आदि का प्रसाद शिव को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। रात को जागरण करके चार बार शिव आरती का
विधान आवश्यक है। दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन करवाकर व्रत का धारण करना चाहिए।
भगवान शंकर पर चढ़ाए गए नैवेद्य को खाना निषिद्ध है। जो इस नैवेद्य का भक्षण कर लेता है, वह नरक को प्राप्त होता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं। यदि शिव की प्रतिमा के पास शालिग्राम की मूर्ति होगी तो नैवेद्य खाने पर कोई दोष नहीं लगता।
महाशिवरात्रि व्रत कथा
कथा : एक गांव में एक शिकारी रहता था। वह शिकार करके अपने परिवार का पालन करता था। एक बार उस पर साहूकार का ऋण हो गया। ऋण न चुकाने पर सेठ ने उसे शिव मंदिर में बंदी बना लिया। उस दिन शिवरात्रि थी। वह शिव संबंधी बातें ध्यानपूर्वक देखता एवं सुनता रहा। संध्या होने पर सेठ ने उसे अपने पास बुलाया।
शिकारी अगले दिन ऋण चुकाने का वायदा कर सेठ की कैद से छूट गया और वन में एक तालाब के किनारे बेल-वृक्ष पर शिकार करने के लिए मचान बनाने लगा। उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थित था । वृक्ष के पत्ते मचान बनाते समय शिवलिंग पर गिरे। इस प्रकार दिनभर भूखे रहने से शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर व्यतीत होने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने निकली। शिकारी ने उसे देखकर धनुषबाण उठा लिया। वह हिरणी कातर स्वर में बोली, “मैं गर्भवती हूं। मेरा प्रसव काल समीप ही है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊंगी।” शिकारी ने उसे छोड़ दिया। कुछ देर बाद एक दूसरी हिरणी उधर से निकली। शिकारी ने फिर धनुष पर बाण चढ़ाया।
हिरणी ने निवेदन किया, “हे व्याघ्र महोदय! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने पति से मिलन करने पर शीघ्र तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाऊंगी।” शिकारी ने उसे भी छोड़ दिया। रात्रि के अंतिम पहर में एक मुगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी ने शिकार हेतु धनुष पर बाण चढ़ाया।
वह तीर छोड़ने ही वाला था कि वह मृगी बोली, “मैं इन बच्चों को इनके पिता के पास छोड़ आऊं, तब मुझे मार डालना। में बच्चों के नाम पर आपसे दया की भीख मांगती हूं।” शिकारी को इस पर भी दया आ गई और उसने उसे भी छोड़ दिया।
पौ फटने को हुई तो एक स्वस्थ आता दिखाई दिया। शिकारी उसका शिकार करने के लिए उद्यत हो गया। हिरण बोला, “व्याघ्र महोदय ! यदि तुमने इससे पहले तीन मृगियों तथा उनके बच्चों को मार दिया हो, तो मुझे भी मार दीजिए ताकि मुझे उनका वियोग न सहना पड़े।
मैं उन तीनों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवन दान दिया हो तो मुझ पर भी कुछ समय के लिए कृपा करें। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने आत्मसमर्पण कर दूंगा।”
मृग की बात सुनकर रात की समस्त घटनाएं एक-एक कर उसके दिमाग में घूम गईं। उसने मृग को सारी बातें बता दीं। उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से उसमें भगवद् भक्ति का जागरण हो गया, अतः उसने मृग को भी छोड़ दिया।
भगवान शिव की अनुकंपा से उसका हृदय मांगलिक भावों से भर गया। अपने अतीत के कर्मों को याद करके वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा।
थोड़ी देर बाद हिरण सपरिवार शिकारी के सामने उपस्थित हो गया। जंगली पशुओं की सत्यप्रियता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेम-भावना को देखकर उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उसने हिरण परिवार को मुक्त कर दिया।
देवता घटना को देख रहे थे। उन्होंने आकाश से उस पर पुष्प वर्षा की तथा दो पुष्पक विमान भेजकर शिकारी तथा मृग परिवार को शिवलोक का अधिकारी बना दिया।