Jagadguru shankaracharya ji ke pravachan : वर्तमान समय में आध्यात्मिक साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है। न केवल पारलौकिक सुख या मोक्ष के लिये अपितु इस लोक में भी बाह्य जगत् के साथ अपने सम्बन्ध को व्यवस्थित एवं कल्याणकारी बनाने में आध्यात्मिक साधना से प्रसूत गुणों, मानसिक एवं द्रष्टिकोण की अपेक्षा है । क्योंकि बिना मानसिक सन्तुलन के केवल भौतिक समृद्धि या सुख-सुविधाओ से मनुष्य को लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
कुछ लोगों की धारणा है कि अध्यात्मवाद पलायनवादका ही रूपान्तर है, संसार की विषम परिस्थितियों से घबराकर उनका सामना करने में अक्षम प्राणी अध्यात्म का आश्रय लेता है । एक भारतीय विद्वान् ने समस्त भारतीय दर्शनों की इसलिये समालोचना की है कि चार्वाक को छोडकर यहाँ के अन्य सभी दर्शन इस लोक को छोड़कर यहाँ के अन्य सभी दर्शन ईस लोक को दुःखमय समझकर परलोक या मोक्ष में ही सुख शान्ति का स्वप्न देखते हैं जिसके फलस्वरूप वर्तमान जीवन से उदासीनता उत्पन्न होती है जो लौकिक उन्नति में बाधक है।
उनकी दृष्टिमें भारत की अवनति का कारण यही दृष्टिकोण हैं । किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि बहिर्मुखता प्राणी में स्वाभाविक है । अहन्ता ममता में ग्रस्त प्राणी मात्र कुछ उपदेशों से परिवर्तित नहीं हो सकता है ।
क्या भारतीय जन समुदाय अपनी अवनति के दिनों में आध्यात्मिक विचारों एवं शान्ति, दान्ति उपरति तितिक्षा, समाधान जैसे साधनों से अपने अन्तःकरण को आप्यायित रख सका है। इतिहास और अनुभव हमें ईस निष्कर्ष पर ले जाता है कि राष्ट्र या व्यक्ति का पतन तभी होता है. जब उसमें आसुरी सम्पत बढ जाती है। काम क्रोध और लोभ के कारण वह अत्यन्त स्वार्थपरायण हो जाता है। उन्नति की ईच्छा रहते हुये भी आज यदि हम अनैतिकता और भ्रष्टाचार से स्वयम् को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं तो इसका कारण हमारा जीवन के प्रति निरा भौतिकवादी दृष्टिकोण एवं उससे उत्पन्न दुर्गुण हैं ।
नैतिका और सदाचार की बातें आज भी बहुत होती हैं पर उसके मूल में जो विचार धारा और साधना अपेक्षित होती है उसके अभाव में उनका कोई मूल्य नहीं है ।
आवश्यकता इस बात की है कि आध्यात्मिक उपलब्धि को साध्य बनाकर भौतिक उपलब्धियों को उसमे समन्वित किया जाय । यह अर्थ, धर्म काम. मोक्ष के परस्पर समन्वय से ही सम्भव हो सकता है।
इस उद्देश्य की सिद्धि तप से ही हो सकती है । धर्म मनुष्य को तपस्वी बनाता है ।
मन और इन्दियों की एकाग्रता ही परम तप है।
‘मन सश्चेद्रियाणांच होकाग्रेयं परमं तपः ।
काठकोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं –
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो ना समाहितः ।
नाशान्त मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।
अर्थात् जो दुराचार (निषिद्धकर्म) से विरत नहीं है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं है जिसका मन चंचल है और जो समाधि से किसी अवान्तर फल (पुण्यलोक) की प्राप्ति चाहता है वह प्रज्ञान के द्वारा परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता ।
इस उपनिषद् में अन्यत्र कहा है ब्रह्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाकर उनकी हत्या कर दी, इसी कारण वे पराक् (बाह्य जगत) को ही देख सकती हैं अन्तरात्मा को नहीं । कोइ धीर पुरुष ही अमृत्व को प्राप्त करने के उद्देश्य से इन्द्रियों को लौटाकर आत्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है ।
आध्यात्मिक साधनामें ध्यान की महिमा सर्वत्र स्वीकृत है । कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग, ज्ञानयोग सभी का आध्यात्मिक साधना में समावेश होता है. इन सभी में ध्यान जुड़ा हुआ है । सब समय मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च’- यह कर्मयोग है।
स्नेह से द्रवित अन्त: करण की भगवदाकारता भक्ति है। विजातीय प्रत्यय तिरस्कार पूर्वक सजातीय प्रत्यय का प्रवाह रूप निदिध्यासन ज्ञानयोग है। विचार करने पर पता लगता है कि सभी में ध्यान का प्राधान्य है । जैसे मधुकरराज (रानी मक्खी) के पीछे अन्य सभी मक्षिकाये चलती है। उसी प्रकार ध्यान में मन के पीछे इन्द्रियों का रहना आवश्यक है।
इसलिये माना गया है कि आत्मा रथी हैं, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी और मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोडे और शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध उनके मार्ग है।
जिस रथी आत्मा का बुद्धि रूपी सारथी सावधान होकर मन की लगाम से इन्द्रय रूपी घोडो को नियंत्रित रखता है। | वही विष्णु के परमपद को प्राप्त करता है। किन्तु जैसे अनियन्त्रित घोडो और असावधान सारथी वाले रथी का रथ किसी भयानक गर्तमें जा गिरता है इसी प्रकार प्रमत्त बुद्धि और अजितेन्द्रिय प्राणी दुर्गति को प्राप्त करता है इससे बचने के लिये भगवत्प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाकर अपनी अभिरुचि और अधिकार के अनुसार किसी साधना को स्वीकार करके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को साधनामय बनाना चाहिये ।
कुछ समय निकालकर सत्संग स्वाध्याय और भगवतचिंतन में लगाना चाहिये। नियमित रुप से ध्यान का भी अभ्यास करना चाहिये। इससे आत्मसमीक्षा के लिये अवसर मिलता है। अपनी वास्तविक मानसिक स्थिति का ज्ञान होता है। भावों को संशोधन की आवश्यकता की अनुभूति और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है ।
आध्यात्मिक साधना में कुछ समय के लिये व्यवहार की निवृत्ति और चित्त की एकाग्रता अपेक्षित होती है पर यह वास्तविक जगत से पलायन न होकर बाह्य परिस्थितियों को व्यवस्थित करने तथा अनसे मन को अप्रभावित रखने की क्षमता के सम्पादन का सर्वोत्तम उपाय है।
जैसे शरीर, इन्द्रिय और मन को और अधिक कार्यक्षम और स्फूर्तियुक्त बनाने के लिये प्रगाढ निद्रा अपेक्षित होती है उसी प्रकार व्यवहार और अन्तःकरण को व्यवस्थित एवं संतुलित रखने के लिये सत्सङ्ग, स्वाध्याय, धर्माचरण एवं ध्यान आदि साधनों की अपेक्षा है।
इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को लक्ष्य की सिद्धि में विश्वास रखते हुवे परमेश्वर की अहेतुकी कृपा का आश्रय लेकर आत्म विश्वास और दृढ संकल्प के साथ सत्पथ पर आरुढ होना चाहिये।
साधनामय व्यक्तित्व ही अपने और विश्व के लिये कल्याणकारी होता है। Anant shri vibhushit Jagadguru shankaracharya swaroopa nand saraswati ji