Bal Gangadhar Tilak : स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है,” यह गर्जना की थी लोकमान्य तिलक ने । भारत के इस केसरी की इस गर्जना ने सारे देश में नवजागृति उत्पन्न की ।
बाल गंगाधर तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरि) के चिक्कन गांव में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। इनके पिता गंगाधर रामचंद्र तिलक एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे।
Bal Gangadhar Tilak जिन्होंने जनजागृति के लिये स्कूल खोले, समाचारपत्र चलाये, जेलों में जो बंदी रहे, मंडाले (बर्मा) के जेल में जिन्होंने ‘गीतारहस्य‘ सा ग्रंथ लिखा, अपने प्रत्येक कार्य द्वारा, अपनी अंतिम सांसतक, देश के स्वातंत्र्य के लिये ही जूझते रहे ।
Bal Gangadhar Tilak history in hindi
“यदि पांच भेडें एक चरागाह को अठ्ठाईस दिनों में चर जाती हैं, तो बीस दिनों में उसी चरागाह को कितनी भेडें खा जावेंगी ?”
“सात भेडें सर,” एकदम से जवाब मिला अभी शिक्षक का प्रश्न पूरा होने को ही था ।
शिक्षक गरज उठे, “गणित न करते हुए यह जवाब किसने दिया ? “
दो या तीन बच्चे चिल्ला उठे, “बाल ने सर ।” शिक्षक बाल के निकट गये। उन्होंने कापी उठाकर उसपर नजर दौडाई ।
“कम से कम तुम्हें उदाहरण कापी में लिखना तो चाहिये । कहां हल किया है ?” शिक्षकने पूछा ।
बाल ने शरारती हंसी हंसकर, अपनी तर्जनी से माथे की ओर इशारा किया। शिक्षक ने कहा, “उदाहरण कापी में हल करना चाहिये ।” तत्काल बाल ने उत्तर दिया, “लिखने की क्या जरूरत ? में मौखिक जो कर सकता हूं ?”
बाल के अनेक सहपाठी, कुछ गणित के प्रश्न शिक्षक द्वारा तीन-तीन बार समझाय जानेपर भी हल नहीं कर पाते थे। परंतु बाल के लिए गणित विषय उतना सरल था जितना की पानी पीना ! और संस्कृत तो उसके लिए केले का छिलका उतारने के समान सरल था ।
बुद्धिमान परंतु शरारती, गंगाधर का बचपन
बाल के पिता, गंगाधर रामचंद्र तिलक संस्कृत के पंडित तथा प्रसिद्ध शिक्षक थे । उनकी विद्वत्ता के कारण सारे लोग उन्हें “गंगाधरपंत” कहते थे । बाल ने सारे पाठ अपने पिताजी के पास घरपर ही पढे । पाठशाला में जाकर पढने का कुछ बाकी ही नहीं था ।
यद्यपि बाल बहुत बुद्धिमान था परंतु अपनी शरारतों के कारण वह शिक्षकों का प्रिय नहीं था । बचपन से ही उसके विचार अलग हुआ करते थे । हमेशा वह अपने अलग और स्वतंत्र विचार रखता था । अपने समवयस्क बच्चों से वह भिन्न प्रकृति का था । उन दिनों, वह रत्नागिरी की प्राथमिक शाला में पढता था ।
एक दिन, बीच की छुट्टी के बाद शिक्षकने कक्षा में प्रवेश किया । कक्षा में जिधर-उधर मूंगफल्ली के छिलके फैले उन्होंने देखे । उनका पारा चढना स्वाभाविक था । उन्होंने हाथ में बेंत उठायी और गरजकर पूछा, किसने फेंके हैं ? ” ये छिलके
कक्षा में पूरा सन्नाटा छा गया । शिक्षक का पारा और चढ गया । शिक्षक पुन: गरज उठे, “बोलो, मूंगफल्ली किसने खायी है ?”
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Bal Gangadhar Tilak history |
कोई विद्यार्थी कबूल करने के लिए तैयार नहीं था । शिक्षक आपे से बाहर हो गये। पूरी कक्षा को सजा देने का उन्होंने निश्चय किया । दो-दो बेंत एकेक के हाथ पर उठने लगे ।
बाल की बारी आ गयी । पर उसने हाथ नहीं बढाया । उसने दृढता से कहा, “मैंने मूंगफल्ली नहीं खायी । मैं बेंत भी नहीं खाऊंगा ।”
“फिर किसने खायी है ?”
“चुगली करना बुरा काम है। इसलिए मैं नहीं बताऊंगा ।”
बाल की स्पष्टोक्ति तथा सचाई से शिक्षक बेचैन हो गये; चिढ भी गये। उन्होंने बाल को शाला के बाहर कर दिया। गंगाधरपंत के पास, बाल के विरुद्ध शिकायत भी पहुंच गयी ।
दूसरे दिन, बाल को साथ लेकर गंगाधरपंत स्कूल आये । उन्होंने कहा, “मेरे बेटे ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है । बाल को बाहर की चीजें खाने की आदत नहीं है । कोई चीज खरीदने के लिए मैं उसे पैसे भी नहीं देता।”
उस छोटी उम्र से ही अन्याय के विरुद्ध लडने का तिलकजी का स्वभाव था ।
बाल गंगाधर का बचपन | biography of bal gangadhar tilak in hindi
बाल को कहानी सुनने का बडा शौक था। उनके दादा, 1857 साल के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम के समय, काशी में थे । पढाई खत्म होते ही बाल कहानियां सुनने के लिए दादा के पास दौडता | नाना साहब, तात्या टोपे, झांसी की रानी आदि क्रांतिवीरों की कथाएं सुननेपर बाल उत्तेजित हो उठता । उसके बालमन में अनेक विचार उठते,
“ओह ! अपने देश के लिए त्याग करनेवाले ये लोग कितने महान हैं !
बडा होनेपर मैं भी अपनी मातृभूमि की सेवा करूंगा । अपनी मातृभूमि को गुलामी की शृंखला से मुक्त करूंगा।” यह इच्छा उसके अंतःकरण में घर कर गयी ।
गंगाधरपंत का तबादला पूना हो गया । उस समय बाल की आयु दस वर्ष की थी । रत्नागिरी से पूना पहुंचना बाल के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी ।
नया गांव, नये लोग । वहां पर ‘अँग्लो व्हर्नाक्यूलर स्कूल’ में प्रवेश लिया । वहां उन्हें विद्वान और प्रसिद्ध शिक्षकों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ ।
पूना आने के कुछ महिनों के बाद ही बाल की माता का देहांत हो गया । पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने उपोषण तथा अत्यंत कठिन और कठोर व्रत किये थे । इस कारण वह बहुत कमजोर हुई थीं । भगवान सूर्यदेव की उपासना के अत्यंत कठोर व्रत का पालन उन्होंने अठारह माह किया था । सूर्यदेव के प्रसाद स्वरूप जिस बालकने जन्म लिया, वही बालक ब्रिटिश साम्राज्य के अस्त का कारण बना ।
Bal Gangadhar Tilak Wife
माता की मृत्यु के छ: साल बाद बाल के पिता स्वर्गवासी हो गये । उस समय बाल की आयु सोलह साल की थी । वह ‘मॅट्रिक’ में पढ रहा था । उसका विवाह ‘सत्यभामा’ नामक लडकी से हुआ था जोकि केवल दस साल की थी ।
बाल गंगाधर तिलक महाविद्यालय में
विवाह के पश्चात् जिम्मेदारियों का बढ़ना स्वाभाविक ही था । अब बाल को लोग ‘बाल गंगाधर तिलक’ नाम से संबोधित करने लगे । ‘मॅट्रिक’ की परीक्षा उत्तीर्ण होने के पश्चात् उन्होंने ‘डेक्कन कॉलेज’ (महाविद्यालय) में प्रवेश किया ।
तिलकजी का स्वास्थ्य अपनी माता के समान नाजुक और अशक्त था । अशक्त प्रकृति रहने से देश के लिए कार्य कैसे होगा ? अतः तिलकजी ने स्वास्थ्य सुधारने का निश्चय किया । कॉलेज का प्रथम वर्ष इसी में बीत गया । वे नियमित शारीरिक व्यायाम कर पौष्टिक आहार लेने लगे । इस अवधि में तिलक जी ने सारे खेलों में प्रथम क्रमांक प्राप्त किया। वे एक अच्छे तैराक और कुश्तीगीर बन गये । उनका शरीर उन्होंने इस प्रकार सुदृढ बनाया कि सब लोग इस चमत्कृत करनेवाले स्वास्थ्य को देखकर दांतोंतले उंगली दबाने लगे ।
सन् 1877 में तिलकजीने बी. ए. की उपाधि ग्रहण की। उस परीक्षा में गणित में उन्हें प्रथम श्रेणी प्राप्त हुई थी, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । अपनी पढाई जारी रखकर उन्होंने एलएल. बी. की उपाधि भी ग्रहण की ।
Bal Gangadhar Tilak का राष्ट्र के लिये समर्पण
‘डवल ग्रॅज्युएट’ होने के कारण तिलकजी को ब्रिटिशों के शासन में, दूसरों के सम खासी अच्छी वेतनवाली नौकरी, आसानी से मिल सकती थी। पर जैसा कि बचपन में ही उन्होंने निश्चित किया था, उन्होंने अपने आप को देश की सेवा के लिए समर्पित कर दिया ।
लोगों के मन में स्वराज्य की कल्पना अभी पूर्ण विकसित नहीं हुई थी । लोगों के मन में स्वराज्य की प्यास उत्पन्न करनी थी । देशभक्ति का बीज बोना था। भारतीय संस्कृति पर आधारित नवजीवन की दृढ नींव डालने की दृष्टि से शैक्षणिक संस्थाओं का निर्माण करना आवश्यक था । ‘प्रत्येक भारतीय को भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रीय आदर्शों का ज्ञान कराना, उत्तम नागरिक निर्माण करना यह कार्य शैक्षणिक संस्था द्वारा ही हो सकता है’, तिलकजी का यह दृष्टिकोण था ।
तिलकजी के सहपाठी श्री आगरकरजी ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। विद्यार्थियों को देश के लिए उपयुक्त बना सके, ऐसी शिक्षा प्रणाली की योजना तिलकजी और आगरकरजी बना ही रहे थे कि उसमें और एक महान व्यक्ति शामिल हो गये-वे थे विष्णुशास्त्री चिपलूणकर |
न्यू इंग्लिश हायस्कूल : एक वटवृक्ष
चिपलूणकर जी स्वयं शिक्षक थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि युवा पीढी को योग्य शिक्षा प्राप्त हो ।
ब्रिटिश शासन भगवान की देन है,’ लोगों के मन का यह अंधविश्वास नष्ट करना आवश्यक है ।
तिलक, आगरकर और चिपलूणकर ये तीनों एक ही आदर्श से प्रेरित थे। विद्यार्थियों में नैतिक सामर्थ्य बढाने हेतु शैक्षणिक संस्थाएं निर्माण करने के लिए वे तीनों जुट गये । तिलकजी द्वारा संयोजित और निर्मित शैक्षणिक संस्था एक विशाल वटवृक्ष के समान है।
तिलकजी द्वारा लगाया गया एक छोटा सा पौधा अनेक शाखाओं का विशाल वृक्ष बन गया । उसकी प्रत्येक शाखा का मतलब एक नया जीवन रहा और नयी शैक्षणिक संस्था रही ।
न्यू इंग्लिश हायस्कूल अब ‘डेक्कन एज्यु केशन सोसाइटी’ में परिणत है । यही संस्था अब पूना का ‘फर्ग्युसन कॉलेज’ तथा ‘ग्रेटर महाराष्ट्र कॉमर्स अंड इकानॉमिक्स कॉलेज’; बंबई का ‘बाम्बे कॉलेज’; सांगली का ‘विलिंग्डन कॉलेज’ तथा अनेक माध्यमिक शालाओं का संचालन करती है ।
सन 1880 में निर्मित ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ ने प्रगति की और अधिकाधिक विद्यार्थियों को अपनी ओर आकर्षित किया। इस संस्था ने हमारी अपनी संस्कृति और आदर्शों को अपनाया है। इसी को प्रतिबिंबित किया है । परीक्षा के सर्वोत्तम परिणाम इसी संस्था के रहे हैं। सारी शिष्यवृत्तियां अपने स्कूल के विद्यार्थी ही प्राप्त करें, इस दिशा में सारे शिक्षक जुटे रहते हैं । तिलक तथा उनके सहकारियों ने अपने परिश्रम में कोई कमी नहीं रखी । प्रथम वर्ष की अवधि में तिलकजी अथवा चिपलूणकरजी दोनों ने वेतन की एक पाई भी नहीं ली ।
समाचारपत्र के जगत् में Bal Gangadhar Tilak का योगदान
अब तिलकजी ने राष्ट्रीय शिक्षा का विस्तार करने का विचार किया। विद्यालयों में केवल विद्यार्थियों को ही शिक्षा दी जा सकती थी । परंतु प्रत्येक भारतीय को गुलामी का स्वरूप समझाने की आवश्यकता थी। लोगों को सुसंगठित करना तथा उनको देश की स्थिति तथा कर्तव्य के प्रति जागृत करना था। तिलकजी ने सोचा, यह कार्य समाचारपत्र द्वारा ही प्रभावशाली ढंग से हो सकता है ।
विद्यालय के प्रारंभ होने के बाद दूसरे ही वर्ष से तिलकजी ने दो साप्ताहिक प्रारंभ किए । एक था मराठी साप्ताहिक ‘केसरी’ तथा दूसरा अंग्रेजी साप्ताहिक ‘मराठा’ । इन पत्रिकाओं ने लोगों को आकर्षित किया। दो वर्ष के अन्दर ‘केसरी’ के पाठकगण
अन्य किसी भारतीय भाषा की पत्रिका से अधिक थे । संपादकीय में जनता के कष्टों का विस्तृत विवेचन और वास्तविक घटनाओं का स्पष्ट उल्लेख होता था । अपने अधिकार प्राप्ति हेतु लडने के लिये प्रत्येक भारतीय को उद्यत किया जाता था। भाषा इतनी प्रभावी होती थी कि कायर से कायर व्यक्ति में भी वह स्वतंत्रता की आकांक्षा निर्माण करती । तिलकजी अपने सह कारियों से हमेशा कहते, आप लोग विश्व विद्यालय के विद्यार्थियों के लिए नहीं लिख रहे हैं । ऐसा समझो कि आप एक ग्रामीण से बात कर रहें हैं । अपने विधान के बारे में दृढ विश्वास रखो । आपके शब्द इतने स्पष्ट चाहिये, जैसा कि दिन का प्रकाश । “
बाल गंगाधर तिलक जी का कारावास
कोल्हापुर रियासत के महाराजा राजाराम मृत्यु के पश्चात् उनके गोद लिए पुत्र की शिवाजीराव महाराज बन गये । जिस क्रूर और निर्दय रीति से ब्रिटिश शासनने उनके साथ व्यवहार किया था, उसका ‘केसरी’ ने धिक्कार
किया था । जब जनता को अंग्रेजों के जुल्म अत्याचारों का पता, लग गया तो पूना और कोल्हापुर में असंतोष फैल गया । सरकार ने ‘केसरी’ पर (सच्ची घटनाएं प्रकाशित करने पर) मुकदमा दायर कर दिया । फलस्वरूप ‘केसरी के युवा संपादक तिलकजी और आगरकर जी को चार माह का सश्रम कारावास भुगतना पडा ।
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तिलक जी का अपनी संस्थाओं से विदा
न्यू इंग्लिश स्कूल प्रगति पर था ही । ‘फर्ग्युसन कॉलेज’ और ‘डेक्कन एज्युकेशन सोसा इटी’ की स्थापना हो चुकी थी । तिलकजी ने नियम बना दिया कि कोई भी 75 रु. से अधिक ‘वेतन की अपेक्षा न करे । परंतु व्यवस्थापक-वर्ग के अन्य लोगों ने इस बात का विरोध किया । जब इस बात पर मतभेद बेहद बढ गये तो तिलकजी ने, संस्था को, जिसका निर्माण उन्होंने स्वयं किया था, दूसरों को सौंप दिया ।
दस वर्षों तक, रात-दिन कडी मेहनत करके, जिस संस्था का विकास किया था, उसे छोडते समय तिलकजी को बडा दुख हुआ ।
‘केसरी’ और ‘मराठा’ साप्ताहिक से कुछ आर्थिक लाभ तो था ही नहीं । इसलिए अपने परिवार के पोषण के लिए तिलकजी को अन्य कार्य खोजना पडा । परंतु उसके लिए उन्होंने ब्रिटिशों की नौकरी नहीं की। अपितु उन्होंने वकीली की परीक्षा के लिए मार्गदर्शन करना प्रारंभ किया ।
Bal Gangadhar Tilak महत्वपूर्ण वर्ष
शैक्षणिक क्षेत्र से बाहर निकलने के बाद, 1890 से सन 1897 तक के ये सात वर्ष, तिलकजी के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए । इन्हीं दिनों तिलकजी अध्यापक से राजनीतिज्ञ बन गये । शैक्षणिक संस्था का संचालक एक राष्ट्रीय नेता बन गया !
अभी तक छिपी हुई उनकी असाधारण कार्यक्षमता अनेक दिशाओं में प्रकट होने लगी । सात वर्षों की इस छोटी कालावधि में उन्होंने सत्तर वर्ष का अनुभव प्राप्त किया । दो साप्ता हिकों के अतिरिक्त’ लॉ’ के विद्यार्थियों को वे मार्गदर्शन कर रहे थे । सामाजिक सुधार के लिए उन्होंने सचमुच शासन के विरुद्ध एक लडाई छेड दी । बाल-विवाह पर प्रतिबंध और विधवा विवाह की सम्मति के लिए उन्होंने आवाहन किया । गणेशोत्सव और शिवजन्मोत्सव के माध्यम से लोगों को संगठित किया ।
तिलकजी पूना की नगरपालिका के सदस्य थे, बंबई विधान-सभा के सदस्य थे और बंबई विद्यापीठ के ‘फेलो’ पदपर चुने गये थे । वे कांग्रेस अधिवेशन में सक्रिय भाग लेते थे । इसी समय उन्होंने ‘ ओरायन ‘नामक ग्रंथ लिखा और प्रकाशित किया । सात वर्ष की छोटी अवधि में तिलकजी की ये महान उपलब्धियां थीं ।
गणेशोत्सव और शिवजयंत्युत्सव के समान स्थानिक उत्सवों को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने में उनकी कुशल संगठन-शक्ति का, सामर्थ्य का ज्ञान होता है । ‘ हम सब एक हैं’ यह भावना लोगों के मन में निर्माण करनी है, तो लोगों का बार-बार आपस में मेलजोल होना आवश्यक है । उनके सामने समान आदर्श उपस्थित रहने पर वे परस्पर भेद भूलकर एकता का आनंद उठा सकेंगे । तिलकजी की यह योजना थोडे ही वर्षों में महाराष्ट्र के कोने-कोने में सफल होती जान पड़ी।
लाशों के बीच सरकारी समारोह
सन 1896 में भारत को अकाल का सामना करना पड़ा । सरकार लोगों के कष्ट दूर करे इस बात पर तिलकजी ने जोर दिया अकालपीडित किसानों की उन्होंने सहायता की प्रत्येक जिले की स्थिति की जानकारी प्राप्त कर, उन्होंने साप्ताहिक ‘केसरी’ और ‘मराठा’ में प्रकाशित की ।
अकाल के शिकंजे से अभी लोग मुक्त ही नहीं हुए थे की प्लेग की महामारी फैल गयी । तिलकजीने अस्पताल खोले, स्वयंसेवकों की सहायता से रोगियों की देखभाल करने लगे । जनता अकाल और प्लेग से पीडित थी। उधर सरकार उनके प्रति एकदम उदासीन थी । स्वयं व्हाइसराय ने कहा था, ” चिंता का कोई कारण नहीं है । और अकाल-सहायता कोष प्रारंभ करने की भी आवश्यकता नहीं है ।” राजस्व वसूली हमेशा के अनुसार होती रही ।
सरकार की इस वृत्ति की तिलकजी ने अपने पत्रों में तीखी आलोचना की । निर्भीकता से प्लेग तथा अकाल से हुई भीषण जनहानि के समाचार छापे । सरकार का गैर जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार लोगों के सामने रखा । अपने संपादकीय लेखों में तिलकजीने जनता से आवाहन किया तथा सलाह दी । अकाल सहायता कानून लोगों को समझाया । और सहायता प्राप्त करने का अपना उचित अधिकार सरकार से मांगने के लिए जनता को उद्यत किया । ” मरने की नौबत आने पर भी क्या आप डरते रहेंगे ? आप धैर्य नहीं जुटा सकते ?” इस प्रकार के सवाल उन्होंने किये ।
सरकार को भी प्लेग पर काबू पाने के लिए विधायक सूचनाएं दीं । रानी व्हिक्टोरिया के राज्य की हीरक जयंति मनाने की तैयारियां शुरु हो गयी थीं। एक ओर जनता प्लेग के शिकार लोगों की अंत्येष्टि में व्यस्त थी, तो उधर सरकार हीरक महोत्सव की तैयारी में !
अंत में प्लेग पर नियंत्रण पाने के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की गयी । उसका नाम रॅड था । यह रँड प्लेग से भी भयानक था । प्लेग-ग्रस्त घर खाली करवाने के लिए उसने सशस्त्र सैनिकों को भेजा ।
सैनिक लोगों के घरों में घुसते और अपनी बंदूक की नोक पर आंतक फैलाते । कोई रोग का शिकार है या नहीं इससे उनका कोई संबंध नहीं था । किसी को भी लेकर अस्पताल में भरती कर देते । बाकी लोगों को दूर-दूर के शिविरों में भेज देते । उनका जो कुछ सामान रहता वह कीटाणुयुक्त कहकर उसे जला देते ।
इस प्रकार ‘रँड’ प्लेग से भी बदतर साबित हुआ ।
परंतु तिलकजी अपने खुद के अस्पताल में, रोगियों को बचाने के लिए दिन-रात परिश्रम कर रहे थे।
सरकार पागल बन गई ?
‘रँड’ के जुल्म और अत्याचार से एक युवक चिढ गया और उसने ‘रँड’ को बंदूक की गोली से उड़ा दिया। उसके बाद पुलिस के अन्याय और अत्याचारों की सीमा न रही ।
यह देखकर तिलकजी का खून खौल उठा । साप्ताहिक ‘केसरी में ‘क्या सरकार पागल बन गई ?’ इस शीर्षक से सरकार की अनैतिक वृत्ति का उन्होंने धिक्कार किया ।
तिलकजी की तीखी भाषा से सरकार कांप उठी । और वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जब तक तिलकजी बाहर हैं, तब तक सरकार के अस्तित्व को धोखा है । किसी बहाने उन्हें कारागृह में बंद करना ही चाहिये ।
‘रँड’ की हत्या में तिलकजी का हाथ हो सकता है, यह संदेह सरकार के मन में उठा । ‘केसरी’ में प्रकाशित, शिवाजी पर एक कविता तथा लेख पर आपत्ति उठाकर सरकार ने तिलकजी को सन 1897 में कारागृह में बंद किया ।
अपने लेखों द्वारा, अशांति निर्माण करना, कानून भंग करना तथा सरकार के विरोध लोगों को भडकाना, ये आरोप उनपर लगाये गये और डेढ वर्ष की सख्त कारावास की सजा दी गई ।
पिंजडे में बंद सिंह
उन दिनों, कारागृह की कोठरियां वास्तविक रूप में ‘नरक’ थीं । तेरह वर्ग फुट की पूरी कोठरी अंधकार से भरी रहती थी । कैदी को करवट लेने के लिए भी जगह नहीं रहती थी। कंबलों में जुएं भरी रहतीं और कमरे में अनगिनत मच्छर रहते । रक्त चूसने वाले खटमलों की और मच्छरों की होड-सी लग जातीं । रोटियों में रेती का मिश्रण और मोटे कपडे का वेष । अधिकारीवर्ग निर्दयता से मारपीट करता और निर्दयता से कैदियों से काम करवाता |
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बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय |
तिलकजी को नारियल के रेशों से रस्सी तथा चटाई बनानी पडती। उनकी उंगलियां छिल गयीं । मॅक्समुल्लर जैसे विद्वान् ने जिस ‘ओरायन’ ग्रंथ की प्रशंसा की थी, वह ग्रंथ लिखनेवाली उंगलियां अब यह काम कर रहीं
थीं । रक्त से भर जाती थीं । चार माह में उनका वजन तीस पौंड घटा ।
जो बहुत थोडा समय मिलता उसमें तिलकजी पढते तथा सीखते थे । एक अमूल्य ग्रंथ “आर्कटिक होम इन् द् वेदाज” की रचना इसी कारागृह में हुई।
दुनिया के विद्वानों तथा राजनीतिज्ञों ने तिलकजी की मुक्ति के लिए सरकार से प्रार्थना की। दो शर्तों पर तिलकजी को मुक्त करने के लिए सरकार राजी हो गयी । एक शर्त यह थी कि मुक्त होने के बाद, अपने सम्मान में आयोजित किसी कार्यक्रम में वे उपस्थित न रहें । और दूसरी यह थी कि वे सरकार पर टीका टिप्पणी न करें। पहली शर्त तो तिलकजी को स्वीकार थी क्योंकि उन्हें खुद को कुछ लालसा नहीं थी । परंतु कोई अपराध नहीं रहनेपर भी एक कायर के समान महाराष्ट्र में रहने की अपेक्षा तो अन्दमान में देश से निर्वासित रहना उन्हें पसंद था । उन्होंने दूसरी शर्त अस्वीकार की। अंत में सरकार ने उनकी सजा घटा दी एक साल की कर दी ।
राष्ट्रीय नेता
सन 1898 की दीपावली के दिन तिलकजी कारागृह से मुक्त हुए। लोगों की खुशी का ठिकाना न था । लोग फूले न समाते थे। जगह जगह पर दीप जलाये गये । पटाखे फोडे गये । भारी संख्या में लोग तिलकजी का दर्शन करने के लिए निकल रहे थे। पूना की प्रमुख सड़कों से जुलूस निकाल कर उन्हें सम्मानपूर्वक लाया गया ।
इस अपूर्व दृश्य को देखकर लोग आनंदाश्रु बहा रहे थे। बच्चे तथा माताएं घरों में अगर बत्ती तथा कर्पूर जलाकर तिलकजी के फोटो की पूजा कर रहे थे । महाराष्ट्र का नेता अब भारत का नेता बन गया । प्रत्येक भारतीय का अंतःकरण आदर और श्रद्धा से भर गया ।
कारागृह के कष्टों से तिलकजी का स्वास्थ्य काफी गिर गया था। वे अशक्त हो गये थे । उनकी आंखों की चमक बुझ-सी गयी थी और गालों की हड्डियां उभर आयी थीं । मुक्त होने के कुछ दिनों बाद ही उनका स्वास्थ्य कुछ सुधर गया
पवित्र-शब्द-स्वदेशी
अब ‘स्वदेशी’ आंदोलन तीव्र हो गया था । आंदोलन का मतलब था विदेशी वस्तुओं पर बहिष्कार । गोखले, रानडे, परांजपे आदि नेताओं ने इस आंदोलन का महत्त्व प्रति पादित किया था । समाचारपत्रों और व्याख्यानों द्वारा तिलकजी इसे समझाने लगे | महाराष्ट्र के ग्राम-ग्राम में इसे पहुंचाया गया । तिलकजी के घर के सामने एक बडा भारी ‘स्वदेशी-बाजार’ खोला गया । वहां पर पचास दुकानों में स्वदेशी वस्तुएं बिकने लगीं ।
स्वदेशी के नारों से देश का कोना-कोना गूंज उठा । विदेशी कपडों की होली जलायी गयी। लोग विदेशी चीनी फेंक कर देशी गुड का उपयोग करने लगे। कपड़ों और कागज की मिल और दियासलाई के कारखाने शुरू किये गये ।
कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज के विद्यार्थियों ने परीक्षाभवन में खाली उत्तर-पत्रिकाएं फाड दीं। उन्होंने कहा कि विदेशी कागज का उपयोग नहीं करेंगे । इस कारण उन्हें छ:-छः बेंतों की सजा मिली । इस बार भी उन्होंने देशी बेंत से ही सजा देने का आग्रह किया ।
“स्वदेशी, स्वराज, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा” ये पवित्र शब्द तिलकजी के थे । लोगोंने उनका शस्त्र के समान उपयोग किया। भारतीयों में गुलामी के विरोध की भावना बढ गयी । लोगों के मन में स्वदेश के लिए प्रेम यही एक क्रांति थी, जो तिलकजी ने निर्माण की ।
बेशरम सरकार
चौदह वर्षों के बाद, गांधी जी ने ब्रिटिशों से असहकार का आंदोलन प्रारंभ किया । इस आंदोलन की जो रीति अपनायी गयी थी उसका निर्माण 1906 में तिलकजी ने किया था ।
इस कालावधि में, भारत सरकार तथा ब्रिटिश पत्रिकाओं ने अनेक प्रकारों से तिलकजी को परेशान किया। बाबा महाराज नामक एक धनी व्यक्ति की मृत्यु हो गयी । उन्होंने अपनी संपत्ति की देखभाल करने की जिम्मेदारी अपनी इच्छानुरूप तिलकजी पर सौंपी थी । तदनुसार तिलकजीने काम शुरू किया । इसी बीच कुछ स्वार्थी लोगों के कहने में आकर, बाबा महाराज की पत्नीने सरकार के पास तिलकजी के विरुद्ध शिकायत की। सरकार तो मौके की ताक में थी कि कब इस नेता को कुचल दिया जाय ।
मुकदमा शुरू हो गया जांच-पड़ताल के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की गयी और नाटक खेला गया। यह निर्णय दिया गया कि तिलकजीने झूठी गवाही दी और झूठी स्वाक्षरी भी करने का अपराध किया। उन्हें चोर तथा खूनी की भांति हथकडियां पहनाकर कारागृह में भेज दिया गया। जमानत लेकर तिलकजी कारागृह के बाहर आ गये । अलग-अलग न्यायालयों में चौदह वर्ष तक तिलकजी लडते रहे। अंत में इंग्लैंड की ‘प्रिव्ही कौन्सिल’ द्वारा उन्हें न्याय मिल गया । भारत के न्यायालयों ने जिस तरह से इस मुकदमे को चलाया था, उसकी ‘प्रिव्ही कौन्सिल’ ने तीव्र भर्त्सना की ।
लंदन के ‘ग्लोब’ और ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ इन समाचारपत्रों ने प्रकाशित किया था कि हत्या करने के लिये तिलकजी ने लोगों को उकसाया था । जब तक इन समाचारपत्रों ने उनसे माफी नहीं मांगी तब तक तिलकजी ने चैन की सांस नहीं ली ।
देश का दुर्भाग्य
ब्रिटिशों ने बंगाल का विभाजन किया । बंगाल के लोगों ने ‘बहिष्कार’ का प्रभावशाली शस्त्र के समान उपयोग किया। बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक प्रभावी आंदोलन प्रज्वलित हो गया। वहां का एक जिला न्यायाधीश मूर्ति मंत अन्याय था । खुदीराम बोस नामक एक क्रांतिकारी ने उस पर बम फेंका |
जनता का आवेश कम करने के लिये सरकार ने अत्यंत कठोर तथा निर्दय पद्धति का अवलंब किया । अरविंद को लोहे की हथकडियां पहनाकर और कमर में रस्सी बांधकर पुलिस थाने में ले जाया गया। विस्फोटक पदार्थ का उपयोग करने का संदेह जिस किसी व्यक्ति पर होता, उसे चौदह वर्ष की सजा दी जाती ।
इस प्रकार के दृष्ट कृत्यों के कारण जनता, सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिये तैयार हो गयी। तिलकजी का खून खौल उठा। उन्होंने ‘ देश का दुर्भाग्य’ इस शीर्षक से ‘केसरी’ में एक लेख लिखा, सरकार को लताडा। उन्होंने लिखा था
‘देश में बमों का निर्माण हो यह दुर्भाग्य की बात है । परंतु बम बनाने के लिये और फेंकने के लिये लोग विवश हों, ऐसी स्थिति निर्माण करना, इसके लिये केवल सरकार ही जिम्मेदार है। यह सब सरकार के अन्यायी राज्य के कारण हो रहा है।”
हवा से भरे गुब्बारे में कांटा चुभने के समान ब्रिटिशों की स्थिति हो गयी । उन्होंने तय किया कि जब तक तिलक जी मुक्त हैं, तब तक उनसे शासन को खतरा है ।
देश के बाहर
‘देश का दुर्भाग्य’ इस लेख पर सरकार ने तिलकजी के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप लगाया । 24 जून सन 1908 को बंबई में उन्हें पकडा गया । 6 वर्ष की सजा देकर उन्हें भारत के बाहर भेज दिया गया ।
उस समय तिलकजी की आयु 52 वर्ष की थी । अपने स्वास्थ्य की बिलकुल चिंता न करते हुए उन्होंने स्वयं को ‘स्वातंत्र्य संग्राम’ में झोंक दिया था। अब वे अशक्त बन गये थे । मधुमेह की बीमारी ने उन्हें और भी अशक्त बना डाला ।
भारतभूमि से दूर 6 वर्ष का यह भयंकर कारावास वे कैसे सहन कर सकेंगे ?
पूरा देश दुख में डूब गया । तिलकजी सारे संसार में आदरणीय और सम्मानित थे । विदेशी विद्वानों ने भी इस कठोर सजा की निंदा की ।
बाल गंगाधर तिलक का कारागृह में भी विद्वत्ता और नेतृत्व
ब्रह्मदेश में मंडाले के कारागृह में तिलकजी का छोटा कमरा लकडी की पट्टियों से बना था । उसमें एक पलंग, टेबल, कुर्सी और किताबों की आलमारी थी । उसमें सर्दी तथा हवा से बचने की कोई व्यवस्था नहीं थी । दूसरे लोगों से संपर्क तोडकर उन्हें दूर रखा गया था ।
सजा का एक वर्ष पूरा हो गया था कि तिलकजी को उनके मित्र से एक सूचना प्राप्त हुई। सूचना यह थी कि यदि तिलकजी कुछ शर्तें स्वीकार करें, तो उन्हें मुक्त किया जा सकेगा । तिलजी ने मित्र को लिख भेजा “अब में 53 वर्ष का हूं । यदि मेरी आयु के और 10 वर्ष बाकी है तो इसका मतलब कारागृह के बाहर आने के बाद 5 वर्ष में और जीवित रहूंगा । इन 5 वर्षों में जनता की सेवा कर सकूंगा। परंतु यदि आज मैंने सरकार की शर्तें मान लीं, तो मेरी आज ही मृत्यु हो जाएगी।”
सश्रम कारावास की सजा साधारण कारा वास में घटा दी गयी । इसलिये उन्हें पढ़ने तथा लिखने की अनुमति दी गई । इसी कारावास में उन्होंने ‘गीता-रहस्य’ नामक ग्रंथ की रचना का महान कार्य किया ।
अकेलापन भुलाने के लिये तिलकजी सदैव लेखन तथा वाचन में डूबे रहते । 6 वर्ष का कारावास समाप्त होते तक उन्होंने चारसौ किताबें जमा की थीं । ‘खुद सीखो’ मार्गदर्शिका की सहायता से तिलकजी ने जर्मन और फ्रेंच भाषा कारावास में सीख ली
समय के अभाव के कारण उन्होंने जो कार्य छोड़ दिया था, अब उन दैनंदिन कार्य की तरफ लौट आये थे । रोज सबेरे वे भगवान की प्रार्थना करते, गायत्री मंत्र तथा अन्य ऋचाओं का जप करते और धार्मिक कृत्य करते थे । तदनंतर वे पढते तथा लिखते थे ।
मंडाले के कारागृह में तिलकजी थे, उसी समय उनकी पत्नी का भारत में देहांत हुआ ।
भारत में
मंडाले के कारागृह से 8 जून 1914 को तिलकजी मुक्त हुए । 13 जून को उन्हें पूना लाया गया और छोड़ दिया गया । अनेक संगठनों ने उनके सम्मान में, पूना में सार्वजनिक सभाएं आयोजित कीं । तिलकजी ने कहा
“छ: वर्षों तक आपसे दूर रहने से, आपके प्रति मेरी प्रेम की भावना जरा भी कम नहीं हुई । स्वराज्य की कल्पना में नहीं भूला हूं । जो कार्यक्रम मैंने पहले से स्वीकार किया है उसमें परिवर्तन नहीं होगा। सारा कार्यक्रम वैसे ही चालू रहेगा।”
तिलकजी मंडाले के कारागृह से वापस आये उस समय कांग्रेस के दो गुटों में गंभीर मतभेद निर्माण हो गये थे । दोनों गुटों में एकता ‘ निर्माण करने के लिये तिलकजी ने प्रयत्न किये । परंतु वे सब असफल रहे। बाद में, तिलकजी ने एक स्वतंत्र शक्तिशाली संगठन निर्माण करने का निर्णय लिया । वही ‘होम रूल लीग’ नाम से परिचित हुआ । स्वराज्य प्राप्त करना यही उसका ध्येय था ।
तिलकजी ग्राम-ग्राम में घूमे, किसानों को लीग का ध्येय समझाया और उनको जीत लिया ।
तिलकजी ने समझाया,
” होम रूल का अर्थ है अपने घर की व्यवस्था स्वयं देखना । क्या हमारा पडौसी हमारे घर का मालिक बन सकेगा ? एक अंग्रेज को इंग्लैंड में जितनी स्वतंत्रता है, उतनी ही स्वतंत्रता एक भारतीय को भारत में चाहिये । यह ‘होमरूल’ का अर्थ है । “
लोगों को संगठित करने के लिये तिलकजी सतत प्रवास करते थे। वे सैंकडों मंचों पर होमरूल’ के बारे में बोले, जहां-जहां भी गये उनका शानदार स्वागत हुआ ।
लखनऊ के बाद वे कानपुर आये ।
‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध हक
“हमें समानता चाहिये । विदेशियों के शासन में हम गुलाम बनकर नहीं रहेंगे । अब तक गुलामी के जिस जुए को ढो रहे थे उसे हम अब थोडी देर भी नहीं ढोएंगे । स्वराज्य यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। और किसी भी कीमत पर हम उसे प्राप्त कर ही लेंगे । जापानी लोग, हमारे समान एशियाई होने पर भी मुक्त हैं, तो फिर हम क्यों गुलाम बने रहें ? अपनी मातृभूमि के हाथों में हथकडियां क्यों रहें ? “
स्वराज्य की यज्ञवेदी प्रज्वलित हो गयी । फिर से सरकार सावधान और परेशान हो गयी ।
जैसे जैसे दिन बीतते गये, तिलकजी के ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, इस नारे का प्रभाव प्रत्येक भारतीय के मनपर गहरा होने लगा । लोकमान्य तिलकजी की लोकप्रियता तेजी से बढ गयी ।
साठ वर्ष का दीप
सन् 1913 में तिलकजी ने अपने जीवन के पूरे साठ वर्षों को सार्थ किया षष्ट्यब्दि पूर्ति के शुभ समारोह में अनेक विद्वान नेता और मित्रगण उनके घर पर पहुंचे ।
तिलकजी को मानपत्र और एक लाख रुपयों की थैली अर्पण कर सम्मानित किया गया। ये सारे समारोह बहुत बड़े पैमाने पर किये गये ।
सरकार ने भी षष्टयब्दिपूर्ति के शुभ अवसर पर तिलकजी को भेंट दी ! वर्षगांठ के एक दिन पूर्व सरकार ने तिलकजी को एक सूचना पत्र भेजा था, जिस में एक साल के सदाचरण के लिये 20 हजार रुपये भरकर
गॉरंटी देने का आदेश था ।
धीरे-धीरे तिलकजी अशक्त वनते चले । उनके भाषण तथा लेख पहले के समान ज्वलंत नहीं होते थे । तथापि विभाजित काँग्रेस एकता निर्माण करने के लिये उन्होंने प्रयत्न किये। उसमें वे सफल हुए ।
इंग्लैंड में
इंग्लैंड के एक पत्रकार श्री चिरोल जब भारत आये थे, तब उन्होंने तिलकजी द्वारा संचालित आंदोलन का अध्ययन किया। तिलकजी के विरुद्ध झूठे विधान किये । उसने आरोप लगाया, “तिलकजी सशस्त्र क्रांति के नेता थे ।” तिलकजी ने दावा किया कि उनका अपमान किया गया है । क्षतिपूर्ति के लिये वे न्यायालय में गये ‘चिरोल कांड’ के लिये तिलकजी को इंग्लैंड जाना पडा और तेरह माह वहां रहना पडा । इस कारण उन्हें अपना मूल्यवान समय और पैसा नष्ट करना पड़ा ।
केवल इसी काम के लिये तिलकजी इंग्लैंड नहीं गये थे, तो ब्रिटिश सरकार को गुलाम भारत की स्थिति समझाने का हेतु भी इसमें था । वहां पर उन्होंने सैकडों सभाएं लीं । ‘होम रूल’ का आंदोलन तीव्र किया। ‘मजदूर पक्ष’ के नेता की मित्रता प्राप्त की ।
बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु कैसे हुई | bal gangadhar tilak death
भारत का सिंह अब नहीं रहा : विश्वयुद्ध में ब्रिटिशों ने भारतीयों की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया । महायुद्ध में जीत के कारण ब्रिटिश उन्मत्त हो गये थे और परिणामतः भारत में अत्याचार, जुल्म बढ गये थे ।
जब ‘रौलट अॅक्ट’ का विरोध किया गया तब ‘ जलियांवाला बाग हत्याकांड’ हो गया । निर्दय सरकार ने सैंकडों निःशस्त्र नागरिकों का जंगली तरीके से कत्ल किया ।
यह खबर सुनते ही तिलकजी भारत लौट आये। भारतीयों को, जब तक उनकी मांगे पूरी नहीं होती तब तक किसी भी हालत पर, आंदोलन जारी रखने के लिये उन्होंने आवाहन किया ।
इस समय तक लोकमान्य तिलकजी बहुत अशक्त बन गये थे । उनका शरीर थक गया था । परंतु लोगों को जागृत करने के लिये वे दौरा करते ही थे । सांगली, हैद्राबाद, कराची, सोलापुर और काशी को उन्होंने भेट दी और भाषण दिये । तदनंतर वे बंबई आये ।
जुलाई 1920 में तिलकजी का स्वास्थ्य और खराब हो गया । (bal gangadhar tilak death) और 1 अगस्त 1920 के प्रथम प्रहर में यह दीप बुझ गया । जैसे ही यह दुखद वार्ता फैल गयी तो सचमुच लोगों का महासागर अपने प्रिय नेता के अंत्य दर्शन के लिये उमड पडा। दो लाख लोग अंत्येष्टि में शामिल हुए। महात्मा गांधी, लाला लाजपतराय, शौकत अली और दूसरे लोगोंने बारीबारी से शव को कंधा दिया ।
तिलकजी का जीवन दिव्य था। प्रत्येक दृष्टि से वे लोगों के सम्मान और श्रद्धा के पात्र थे। उन्होंने अत्यंत सादगी से जीवन व्यतीत किया । तन-मन से देश की सेवा की। तिलकजी के पास संपत्ति नहीं थी । उनका पहनावा अत्यंत सादा था। धोती, कुरता, कंधे पर एक शाल और लाल पगडी-यह उनका वेश था ।
लोकमान्य तिलकजी की पत्नी सत्यभामा बाई भी पति के समान सादी थी । उन्होंने कीमती वस्त्र कभी नहीं पहने । अपने परिवारों तथा अतिथियों की देखभाल में उनका जीवन व्यतीत हुआ । मृत्यु के समय अपने पति से मिलने की उनकी तीव्र इच्छा थी । परंतु वैसा नहीं हो पाया था। उस समय तिलकजी मंडाले के कारागृह में थे ।
महान जीवन, महान व्यक्ति
23 जुलाई 1856 को रत्नागिरी में तिलकजी का जन्म हुआ। वे चौंसठ वर्ष तक जीए। उनके जीवन का प्रत्येक वर्ष महान उपलब्धि से महत्वपूर्ण है ।
ब्रिटिश सरकार तिलकजी से कितनी डरती थी इसका अनुमान, बंबई के गव्हर्नर द्वारा ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया’ को सन् 1908 में लिखे गये पत्र से लगाया जा सकता हैं ।
“वे ब्रिटिशों के विरुद्ध षडयंत्र करनेवालोंबके प्रमुख थे। वे हो सकता है वे एक प्रमुख षडयंत्रकारी भी हों। भारत से ब्रिटिश शासन को नष्ट करने के उद्देश्य से ही उन्होंने गणेशोत्सव, शिवजयंत्युत्सव, पैसा फंड और राष्ट्रीय शालाओं का निर्माण किया है ।”
तिलकजी की जब मृत्यु हुई तो महात्मा गांधीजी ने कहा था,
“उन्होंने अपनी फौलादी इच्छा शक्ति का उपयोग देश के लिये किया । उनका जीवन एक खुली किताब है। भावी पीढियां तिलकजी को, जिन्होंने अपना जीवन देशवासियों के लिये ही बिताया, आदर के साथ याद करती रहेंगीं ।”
Bal Gangadhar Tilak history in hindi : बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय