Thursday, June 8, 2023

सदुपदेशामृत – निर्मल मन जन सो मोहिपावा : जगद्गुरु शंकराचार्य जी

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सद्गुरुदेवश्री :
shankaracharya ji ke pravachan सभी प्राणी सुख की इच्छा से विविध कर्मों में प्रवृत्त होते है, पर उनको सुख की प्राप्ति नहीं होती कारण यह है कि वे सुख के स्वरूप पर विचार नहीं करते। सामान्य जन भौतिक पदार्थ, प्राणी या चित्त की अवस्था विशेष को हो सुख समझकर उनको सिद्ध करने के लिये प्रयत्न करते हैं। पर जब उनको पाकर भी उन्हें स्थिर सुख नहीं मिलता तो पुनः उसी प्रकार का प्रयत्न करते हुए विफल मनोरथ हो जाते है।


shankaracharya ji ke pravachan

विचार करके देखा जाये तो पता लगेगा कि सुख साध्य नहीं, किन्तु सिद्ध है। प्रयत्न से वह वस्तु प्राप्त होती है जो साध्य हो। साध्य उसको कहते हैं जो उत्पाद, आप्य विकार्य और संस्कार्य होती है।

उत्पाद उसको कहते हैं जो कालान्तर में प्राप्त होता है जैसे भूमि को जोतने और बीज बोने से अन्न उत्पन्न होकर कालान्तर मे प्राप्त होता है और जैसे पुण्य कर्म करने से परलोक में स्वर्ग और इस लोक मे पशु, पुत्र, धन आदि की प्राप्ति होती है। देशान्तर में जिसकी प्राप्ति होती है उसको आप्य कहते हैं। जैसे हम चलकर जिस किसी के पास पहुंचते है वह हमारे लिये आप्य है।

जो किसी पदार्थ का परिणाम होता है वह विकार्य कहलाता है जैसे दूध का परिणाम दही होता है। संस्कार्य उसको कहते हैं जो संस्कार से परिष्कृत किया जाता है जैसे- हीरे को तराशकर उसमें चमक लाई जाती है या दर्पण के मलिन हो जाने पर उसको पोंछ कर स्वच्छ किया जाता है।

जो वर्तमान में नहीं है; वही उत्पाद्य, आप्य, विकार्य और संस्कार्य होकर साध्य बनता है। सुख को इसी प्रकार का समझकर जनसामान्य उसको सम्पादित करने के लिए विविध प्रकार के उपायों में लगे रहते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति कुछ और ही है। सुख अपना स्वरूप ही है और सब प्रकार की चेष्टाओं की उपरति उसका शरीर है।

जब पाँचों इन्द्रियाँ मन के सहित निश्रचेष्ट हो जाती हैं तब उस अवस्था मे “सहज सुख की अभिव्यक्ति होती है। प्रयत्न अभिव्यक्ति के लिये किये जाते हैं उत्पत्ति के लिये नहीं। जितने भी साधन हैं वे सब अन्त:करण को निर्मल बनाने में सहायक हैं। क्योंकि स्वच्छ और शान्त अन्तःकरण में ही परमानन्द स्वरूप आत्मा की छाया पड़ती है।





जैसे सूर्य की किरणें सर्वत्र समान रूप में पड़ने पर भी उनकी जितनी चमक जल या काँच में दिखलाई पड़ती है उतनी और कहीं दिखलाई नहीं पड़ती।


उसी प्रकार आनन्द स्वरूप परब्रह्म परमात्मा भी सर्वव्यापक होने पर भी स्वच्छ अन्तःकरण में ही सुस्पष्टरूप से प्रतिबिम्बित होता है। 

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