युगों पुरानी बात है, शंख और लिखित नामके दो भाई थे। वे बाहदा नदीके तटपर आश्रम बनाकर तपस्या करते थे। उनके आश्रम अलग-अलग थे, जो बड़े रमणीक और सदा फल-फूलोंसे लदे रहते थे। एक बार लिखित शंखके आश्रमपर गये। संयोगवश उस समय शंख कहीं बाहर गये। हुए थे। लिखितने कुछ देरके लिये वहीं रुककर उनकी प्रतीक्षा करनेका विचार किया, अतएव वे वहीं ठहर गये। उन्होंने आश्रमके आस-पास लगे हुए वृक्षांको देखा, जो उस समय सुन्दर फलोंसे शोभायमान थे।
लिखितने भाईकी अनुपस्थितिमें अपनी पसंदके कुछ फल तोड़ लिये। वे वहीं 1 बैठकर उन्हें खाने लगे। इसी बीच शंख वहाँ आ गये। उन्होंने लिखितको फल खाते देखकर पूछा- ‘भैया! तुम ये फल कहाँसे ले आये ?’ इसपर लिखितने अपने बड़े भाईसे कहा- ‘भैया ! ये फल तो मैंने इसी सामनेवाले पेड़से तोड़े हैं।’ इसपर शंखने कहा- ‘तुमने बिना मुझसे पूछे फल तोड़कर चोरी की है।’ लिखितने यह सोचकर फल नहीं तोड़े थे।
उन्होंने अपने बड़े भाईकी वस्तु समझकर ही फल तोड़े थे, किंतु भाईका यह वचन सुनकर वे स्तम्भित हो गये। शंखने आगे कहा – ‘इस चोरीके लिये तुम्हें दण्ड मिलना चाहिये। बिना पूछे दूसरेकी वस्तु नहीं लेनी चाहिये। अतः तुम राजाके पास जाकर ये सारी बातें बताओ और उनसे इस अपराधके निवृत्त्यर्थ दण्ड देनेके लिये निवेदन करो।’
लिखित भाईकी आज्ञा मानकर राजाके पास गये। उन्होंने राजासे सारी बातें बताकर निवेदन किया- ‘राजन् ! मैंने बिना पूछे दूसरेकी वस्तु लेकर चोरीका अपराध किया है, इसलिये आप अपना कर्तव्य पालन करते हुए मुझे उचित दण्ड दीजिये।’
राजाका नाम सुद्युम्न था। उन्होंने लिखितकी बातें सुनकर कहा- ‘विप्रवर! यदि आप दण्ड देनेका अधिकारी राजाको
मानते हैं और यह जानते हैं कि चोरको दण्ड देना राजाका कर्तव्य है तो उसे क्षमा करने का भी अधिकार है।
अतः मैं आपको क्षमा करता हूँ। इसके सिवा मेरे योग्य यदि और कोई सेवा हो तो आज्ञा दीजिये। मैं उसे पालन करनेका प्रयत्न करूँ।’ परंतु राजाके बहुत आग्रह करनेपर भी लिखितने दण्ड दिये जानेके लिये ही हठ किया। उसके बदले और कोई बात उन्होंने स्वीकार नहीं की। तब राजाने चोरीका दण्ड देते हुए लिखितके दोनों हाथ कटवा लिये। इस प्रकार दण्ड पाकर वे अपने भाई शंखके पास आये। उन्होंने दीन होकर भाईसे प्रार्थना की कि ‘मुझे दण्ड प्राप्त हो गया। अब आप मुझ मन्दमतिको क्षमा करें।’
शंखने कहा- ‘भैया! मैं तुमपर कुपित नहीं हूँ। तुम तो धर्मको जाननेवाले हो। तुमसे धर्मका उल्लङ्घन हो गया था, उसीका तुम्हें दण्ड मिला है। अब तुम शीघ्र ही बाहुदा नदीमें जाकर स्नान करो तथा पितरो और देवताओंका विधिवत् तर्पण करो। भविष्यमें कभी अधर्ममे मन मत ले जाना।
शंखकी बात सुनकर लिखित बाहुदा नदीके तटपर गये और उसके पवित्र जलमें स्नान किये। वे ज्यों ही तर्पण करनेको तैयार हुए त्यों ही उनकी भुजाओंसे कमलके समान दो हाथ निकल आये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने जाकर अपने भाईको वे हाथ दिखाये। शंखने कहा- ‘भाई! मैंने अपने तपके प्रभावसे तुम्हारे ये हाथ उत्पन्न कर दिये हैं।’
इसपर लिखितने पूछा- ‘भाई! यदि आपके तपका ऐसा प्रभाव है तो आपने पहले ही मेरी शुद्धि क्यों नहीं कर दी ?’ तब शंखने कहा- ‘तुम्हें दण्ड देनेका अधिकार मुझे नहीं है, यह तो राजाका ही धर्म है। इससे राजाकी भी शुद्धि हुई और पितरोंके साथ तुम्हारी भी। प्रजाका पालन करना ही राजाका धर्म है।
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प्रेषक – श्री अमरपालसिंहजी