Personality development सिरीज की यह पोस्ट नंबर 4 है हमारी पिछली पोस्ट (personality development tips in hindi) को जरूर देखे आज का टॉपिक है आखो का रहस्य से संबधित (Secret of eyes) जब कोई बोलता है हिम्मत है तो आखे मिलाकर बात करो-जब कोई यह बात कहता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि आखें तलवार या बंदूक बन जाती है। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे से बातें करते हुए आंखें चुराता है तो इसका अर्थ यही है कि वह कोई बात या तो छुपा रहा है या झूठ बोल रहा है। सच बोलनेवालों को ऐसा कोई डर नहीं रहता कि आखें उसके मन का भेद खोल देंगी। आइये जानते है आखो का रहस्य ( Secret of eyes) से संबधित दिलचस्प जानकारी
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secret of eyes |
आखोँ का रहस्य | Secret of eyes ? Personality development
अपराधियों से पूछताछ करते समय पुलिस अफसर अकसर यह तरीका अपनाते है। वह किसी मुजरिम की तुड्डी के नीचे डंडा रख मुंह ऊपर उठाकर सवाल पूछते हैं तथा उनसे आंखें मिलाकर जवाब देने को कहते हैं। यह बात अलग है कि धाकड अपराधी आखें मिलाकर भी धड़ल्ले से झूठ बोल जाते हैं।
Secret of eyes : बातें करते समय आंखें मिलने हुंकार भरने, सर हिलाने जैसी मुद्राओं पर बहुत ध्यान दिया जाता है। अक्सर लोग सोचते हैं कि यदि सामने वाला बातें करते समय उनसे आखें नहीं मिला रहा है तो इसका मतलब यही कि वह या तो उनकी बातें नहीं सुन रहा है या फिर एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दे रहा है। आमतौर पर बातें करते समय लोग 30 से 60 प्रतिशत समय एक दूसरे की आंखों में देखने में लगाते हैं, मगर यह प्रतिशत 60 से अधिक हो जाए तो इसका अर्थ यह निकालना चाहिए कि उनकी रुचि वक्ता में अधिक है और इसमें कम कि वह बोल क्या रहा है। और, अगर दो लोग पलकें झपकाये बिना ही लगातार एक दूसरे की आंखों में देखते रहें तो इसके दो ही मायने हो सकते हैं। दोनों प्रेमी-प्रेमिका हैं।
आंख चुराकर बात करना अपरिपक्व व्यक्तित्व (Immature personality) का परिचायक है दोनों के बीच घनघोर दुश्मनी है और आंखों-आंखों में दोनों एक दूसरे को तौल रहे हैं। कई लोग सोचते समय या कोई निर्णय करते समय आंखों के सम्पर्क से बचते हैं। ये लोग दृढनिश्चयी नहीं होते। इन्हें डर लगता है कि यदि उनके निर्णय के प्रति सामने वाले की आंखों में अविश्वास या अनिश्चय नजर आया तो उन्हें भी अपने फैसले का पूरा भरोसा नहीं रह जाएगा।
आखोँ का रहस्य | Secret of eyes ? Personality development
Secret of eyes: दृढनिश्चयी निर्णय सुनाते समय आंखें नहीं चुराते। अपने आत्मविश्वास (Self-confidence) के कारण ही वे दूसरों की शंकाओं पर अधिक ध्यान नहीं देते। यह भी पाया गया है कि बोलनेवाले की तुलना में सुननेवाला आंखों का संपर्क बनाने को इच्छुक ज्यादा होता है, यदि किसी प्रश्न से कोई असहजता महसूस करता है तो वह इधर-उधर देखकर जवाब देता है और यदि किसी प्रश्न पर वह सुरक्षात्मक या आक्रामक रुख अपनाता है अथवा सीधा जवाब नहीं देता तो भी उसकी आंखों से नाटकीयता झलकने लगती है और पुतलियां बड़ी हो जाती हैं।
पुतलियां उत्साह में भी बड़ी होती हैं, पर उनमें एक स्वाभाविक उल्लासित चमक होती है। लेकिन, ये बातें हर समय, हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू नहीं होती। कई लोग शर्मीले होते हैं और वे इसलिए भी आंखों में देखकर बातें करने से हिचकिचाते हैं। ऐसे लोग आंखें मिलाकर बात नहीं करने के बावजूद पूरी तरह ईमानदार व सच्चे हो सकते हैं, फिर भी जितनी बार वे आंखें चुराकर बातें नहीं करते उतनी बार वे अपने प्रति शक आमंत्रित करते हैं।
जासूसों के देखने का ढंग बिल्कुल अनूठा होता हैं। वे सामनेवालों की आंखों में देखते हुए भी नजरें चुराए रहते हैं। आमतौर पर वे तिरछी नजर से देखते हैं जिसमें आंखों के टकराव की उम्मीदें बहुत कम रहती है। उनके इस तरह देखने का कारण यह है कि वे देखना तो चाहते हैं पर देखते हुए भी देखना नहीं चाहते। उनकी पलकें अधमुंदी रहती हैं जिससे उनकी आंखें सामनेवालो की नजरों से छुप जाती हैं, पर उनकी नजरों के सामने वो वस्तु या व्यक्ति मौजूद होता है जिस पर उन्हें नजर रखनी होती है ।
आखों के अलावा भौंहें भी हमारे मन का हाल बताने में सक्षम होती हैं
प्रेम का इजहार न कर पानेवाले प्रेमी या प्रेमिका भी इसी तरह देखले हैं। आखों के अलावा भौंहें भी हमारे मन का हाल (Secret of eyes) बताने में सक्षम होती हैं। भौहे सिकुड़ी हों तो नाराजगी या असमजस की स्थिति होती है, भौहें तनी हो तो ईर्ष्या या अविश्वास का भाव झलकता है। नाक सिकोड़कर अप्रसन्नता या नापसंदगी जाहिर की जा सकती है। भिंचे जबड़े गुस्से या नफरत का इजहार करते हैं तनी हुई ठुड्डी बगावत करती है और भिंचे होठ अड़ियल रुख की चेतावनी देते हैं। तो अगली बार यदि आप किसी से बात करने जाएं तो सामनेवाले की मुखमुद्राएं अवश्य ही परख लें।
स्वयं को पहचानिए | Identify yourself | Personality development
- मनुष्य की गतिविधियां और उसके शाश्वत अस्तित्व परस्पर कितना आत्मनिर्भर है या कितना पराधीन है ?
मनोविश्लेषक स्वयं मनुष्य को ही शक्ति का विराट पुंज मानते हैं, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, अर्थात् सर्वसाधारण ही असीम शक्ति का केन्द्र बिन्दु है। वे मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मानस में एक-सी शक्तियां विद्यमान रहति है। केवल स्थान, काल और परिस्थिति के अनुकूल उनका अलग-अलग विकास होता है। फिर भी सर्वसाधारण की समझ में ये बातें नहीं आती। वह व्यक्ति दूसरे की शक्ति के समक्ष सिर झुकाने को सदैव तत्पर रहता है और यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह स्वयं भी एक सर्वसत्ता-सम्पन्न इकाई है।
इस सन्दर्भ में एडीसन का कथन है कि-
सितारे एक दिन ठंडे पड़ जाएंगे। सूर्य भी अपनी आयु को प्राप्त कर एक दिन ठंडा पड़ जाएगा, परन्तु हे मनुष्य तेरा यौवन शाश्वत रहेगा।
महर्षि अरविन्द की साधना के आधार पर मनुष्य में विराट शक्ति के प्रादुर्भाव की बात कही गयी है जर्मन दार्शनिक काट ने कहा है-
“मुझे केवल दो वस्तुओं को देखकर आश्चर्य होता है -आकाश में चमकने वाले तारों को देखकर और मनुष्य के अन्दर उपस्थित नैतिक कानूनों को देखकर।
प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक सुकरात ने एक बार एक मन्दिर की दीवार पर लिखा था- अपने आपको पहचानों (Identify yourself) । लेकिन :-
- अपने आपको मनुष्य पहचाने कैसे ?
- पहचाने भी तो क्यों, किसलिए ?
- अपने आपको पहचान लेने की प्रक्रिया क्या है ?
- और इससे लाभ क्या है ?
यह जान लेना चाहिए। मनुष्य जब इन विचारों में धंस रहा होता है तब वह निस्सदेह पहचानने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है। अपने आपको पहचानने का अर्थ है जागरूक होना। अविवेक से मुक्त होते हुए विवेक की शरण में आते जाना। अविवेक है सघन मूर्छा, और विवेक है प्रकाश । सघन मूर्छा के जाल को तोड़कर मनुष्य जब प्रकाश में आता है तब असमर्थताए उसके मार्ग की बाधा नहीं बन पाती, बल्कि उसकी अनभिज्ञ शक्ति का अवलम्ब बनने लगती है। यू कहा जाए कि वे असमर्थतायें ही सामर्थ्य बनकर उसकी शक्ति को बढ़ाती है जिसकी पहचान इन्सान को स्वयं की जागरूकता से होती है। चिन्तन के ऐसे क्षणों में एक प्रश्न लाजिमी तौर पर उठ सकता है कि आखिर यह रहस्य (secret) है क्या ? इसे एक बार हमें पहचान ही लेना चाहिए।
मनुष्य जन्म से महान होता नहीं, अपवादों की बात अलग है। लेकिन, एक बात साफ है कि मस्तिष्क भले ही सबसे समान होता है, पर मानस सबमें एक समान नहीं होता। मस्तिष्क है साधक और मानस है साध्य, अर्थात साधक का एकान्त स्थल । मानस है मनुष्य का सारथी और मस्तिष्क है मनुष्य रूपी रथ का घोड़ा। मस्तिष्क बाहरी प्रभावों को ग्रहण करता है, जबकि मानस आंतरिक चेतना से ऊर्जास्थित होता है।
मन में दो शक्तियां प्रधान हैं-
- तर्क
- और कल्पना ।
तर्क से विचार की उत्पत्ति होती है और अनेक विचारों का सामंजस्य कर चिंतन की उत्पत्ति करता है। इसी तरह, अनेक चिन्तनों के पारस्परिक सामंजस्य से दर्शन उपजता है। मनुष्य इस सामान्य-सी लगनेवाली प्रक्रिया तथा अपनी नैसर्गिक प्रेरणाओं के अन्तर्गत कार्य करता रहता है। प्रत्येक कार्य का एक परिणाम भी होता है और इसी परिणाम के आधार पर मनुष्य कल्पनाएं करता है।
श्री गोस्वामी तुलसीदास –
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन ते सी।।
बात दरअसल यह है कि मनुष्य की प्रतिष्ठा करना हम भूल गए है और धन के दास बनकर रह गए है। हम यह भूल रहे हैं कि हमारे परिवार के सदस्य आपस में रूप-रंग में भिन्न हैं तो जाहिर है वे कार्य क्षेत्र के आधार पर भी भिन्न होंगे और होंगे भी क्यों नहीं ? पर, यह कल्पना हमारी कल्पनाशक्ति से बाहर हो गई है।
फिर भी, वैयक्तिक लाभ-हानि की कसौटी पर कसने वाले अर्थतंत्र में मनुष्य अपने-अपने विचार व्यक्त कर नहीं पाते। अतः जब तक मनुष्य अपने स्वार्थों को संतुष्ट करने वाले अर्थतंत्र में आपाधापी और मारामारी समाप्त करने की संभावना तथा संकल्पशीलता के साथ मानव-समुदाय में उपस्थित नहीं होगा तब तक उसकी वास्तविक शक्ति स्फूर्त नहीं होगी।
आज यदि सभी लोग जीवन का सुखद संगीत नहीं सुनते यह सिद्ध नहीं हो पाता कि ईश्वर ने किसी खास जीवन के लिए ही इस संगीत की रचना की है। मनुष्य का प्राथमिक कर्तव्य है कि वह खुली आंखों से अपने चारों ओर का संसार देखें। तभी वह जान सकेगा और आश्चर्यचकित भी होगा कि आखिरकार बड़े-बड़े देव-पुरुष व महापुरुष भी उसी सांसारिक जन- समूह से उत्पन्न हुए हैं जिसे वह देख रहा है। तब निःसंदेह उसके चेहरे पर अनन्त मुसकान खिल उठेगी और तभी वह अपने आपको पहचान सकेगा। फिर उसके अन्दर स्वयं की जागरुकता का सृजन भी होने लगेगा।
मनुष्य जब अपने आपको पहचान लेता हैं तब वह जीवन को बोझ नहीं मानता, और न ही भार की तरह ढोता है। अपने को पहचानने का अर्थ मनुष्य बनना है और सतत मनुष्य बनकर रहना है। यही है जीवन और जीवन का असली सौन्दर्य।