online class :- भारत देश में कितने बच्चों के पास पढ़ाई के लिए स्मार्टफ़ोन या लैपटॉप की सुविधा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अब तक भारत सरकार के पास नहीं है.
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCRT) ने 19 अगस्त को बताया कि 18 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अभी भी ये जानने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में कितने प्रतिशत बच्चों की पहुँच किसी भी डिज़िटल माध्यम जैसे टीवी, रेडियो, इंटरनेट आधारित डिवाइस, मोबाइल और लैंडलाइन तक नहीं है.
सर्वे बताता है कि ख़राब इंटरनेट, बिजली की कमी और स्मार्टफ़ोन या लैपटॉप ना होना बच्चों को ( online class) पढ़ाई से दूर कर रहा है.
भारत के 24 करोड़ शिक्षार्थियों में से 18,188 बच्चों पर किये गये इस सर्वे में यह भी सामने आया कि लगभग 80 फ़ीसदी बच्चों के पास लैपटॉप नहीं है. और लगभग 20 फ़ीसदी बच्चों के पास स्मार्टफ़ोन नहीं है.
एनसीआरटी के मुताबिक़, भारत में 27 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चे, टीचर और घरवाले ऑनलाइन कक्षाएं लेने की प्रक्रिया में स्मार्टफ़ोन डिवाइस की कमी से जूझ रहे हैं.
हाल ही में पश्चिम बंगाल की एक बच्ची ने अपनी ज़िंदगी सिर्फ़ इसलिए ख़त्म कर ली क्योंकि वो कथित रूप से स्मार्टफ़ोन नहीं होने के कारण ऑनलाइन क्लास नहीं ले पा रही थी.
असम में भी 15 साल का एक बच्चा कथित रूप से ऑनलाइन क्लास न अटैंड कर पाने की वजह से आत्महत्या कर लेता है और त्रिपुरा का एक पिता कथित रूप से अपनी बच्ची को एक अदद स्मार्टफ़ोन नहीं दे पाने की वजह से आत्महत्या कर लेता है.
हालांकि, ये आंकड़े नहीं, बल्कि इंसानों की मजबूरी और ‘सपने टूटने’ की कुछ दर्द भरी कहानियाँ हैं जो मुख्यधारा में उस तरह दिखाई नहीं पड़तीं.

जानकारों की राय है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ जाति, धर्म और सामाजिक रसातल से निकलने का सिर्फ़ एक ही रास्ता है, वो है शिक्षा.
इस ‘रसातल’ में जीने वाले लोग अपने बच्चों को यह बताते हुए बड़ा करते हैं कि फलां व्यक्ति रिक्शा चलाता था लेकिन उसकी बेटी आईएएस अफ़सर बन गई है या जाति की सीमाओं को तोड़ते हुए एक लड़की बड़ी अधिकारी बनी.
इन बातों के पीछे भारतीय माँ-बाप का लक्ष्य यही होता है कि अगर उनके बच्चे पढ़ गये, तो उन्हें वो सब नहीं झेलना होगा, जो उन्होंने शिक्षा से दूरी होने के कारण झेला.
‘सीमित हुआ’ शिक्षा का अधिकार‘
लेकिन 21 मार्च को लॉकडाउन लगने के बाद भारत के बच्चों का एक बड़ा वर्ग तत्काल उस कालखंड में पहुँच गया, जब सिर्फ़ एक ख़ास वर्ग के बच्चों को शिक्षा लेने का अधिकार था
मजबूरी की वजह से आये इस ऑनलाइन एजुकेशन के दौर में ‘शिक्षा का अधिकार’ सिर्फ़ स्मार्टफ़ोन या लैपटॉप डिवाइस रखने वालों के पास सिमट कर रह गया है और जिनके पास डिज़िटल डिवाइस नहीं हैं, वो ऑनलाइन हुए स्कूलों से गायब हो रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के सीतापुर में रहने वाले सम्भ्रांत के पिता वीरेंद्र कुमार को जब पता चला कि उनके बेटे को अगले कुछ दिन टेक्स्ट मैसेज़ और वॉट्सऐप आदि से पढ़ाई करनी होगी तो उन्हें लगा कि ये तरीका काम नहीं करेगा.
लेकिन उन्होंने अपनी राय को बच्चे की पढ़ाई में बाधा नहीं बनने दिया.
वे कहते हैं, “मेरी राय जानना चाहें तो मुझे पहले दिन से मालूम था कि ये काम नहीं करेगा. और किया भी नहीं. लेकिन सम्भ्रांत की ख़ातिर हमने उसे भरी दोपहर में खेत पर आकर भी पढ़ाने की कोशिश की. क्योंकि घर पर इंटरनेट स्पीड नहीं आती. उसने काफ़ी कोशिश की. लेकिन बिना इंटरनेट सिग्नल के क्या संभव है. हम जहाँ रहते हैं, वो जंगल का इलाक़ा है और यहाँ इंटरनेट बड़ी मुश्किल से मिलता है.”
वीरेंद्र जिसे जंगल का इलाक़ा बता रहे थे, वो दरअसल उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र 88 किलोमीटर दूर है.
फ़िलहाल सम्भ्रांत ने स्कूली पढ़ाई छोड़ दी है और उनके पिता वीरेंद्र पाँच छह हज़ार रुपये ख़र्च करके उनके लिए स्टेशनरी का सामान और विज्ञान-भूगोल की किताबें ले आये हैं.
वीरेंद्र कहते हैं, “मैं किताबें ले आया ताकि इसका (सम्भ्रांत) मन लगा रहे…”
दिन ब दिन बढ़ती आर्थिक असमानता
अगर ऑनलाइन शिक्षा की तकनीक पर बात करें तो ऑनलाइन एजुकेशन के लिए एक अच्छी गुणवत्ता का फ़ोन, बेहतर बैटरी, मेमरी स्पेस और इंटरनेट कनेक्शन की ज़रूरत होती है.
आईसीएआई के मुताबिक़, भारत की 130 करोड़ की आबादी में से क़रीब 45 करोड़ लोगों के पास ही स्मार्टफ़ोन है.इसका मतलब ये कि आधी आबादी से ज़्यादा लोग बिना स्मार्टफ़ोन के हैं. कहीं-कहीं पाँच छह लोगों के परिवार में सिर्फ़ एक स्मार्टफ़ोन होता है. ऐसे में अगर एक घर में दो बच्चे हैं जिन्हें सुबह से लेकर दोपहर तक ऑनलाइन पढ़ाई करनी है, तो उन्हें दो फ़ोन चाहिए.
ऐसे में वो परिवार जिनकी आमदनी कम है या लॉकडाउन में रुक गई है, उनके लिए नये फ़ोन की व्यवस्था करना एक चुनौती है.
मान लीजिए कि परिवार के मुखिया ने दो स्मार्टफ़ोन जुटा भी लिए तो इसके बाद उसके सामने डेटा की समस्या खड़ी होगी.
एक ज़ूम क्लास के लिए सामान्यत: डेढ़ से दो एमबीपीएस स्पीड की ज़रूरत होती है. और एक घंटे की क्लास में डेढ़ से दो जीबी डेटा खर्च होता है.
परिवार को तत्काल इंटरनेट इस्तेमाल के लिए दो सिम या ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन लेना होगा जिसका खर्चा उसे कम हुई तनख्वाह और बढ़े हुए खर्चों के बीच ही वहन करना होगा.
इसके बाद जब इस परिवार के दो बच्चों को दिन में छह कक्षाएं और महीने में 144 क्लासेज़ लेनी पड़ेंगी हैं तब प्रति बच्चे प्रति माह 216 जीबी से कहीं ज़्यादा डेटा की ज़रूरत पड़ेगी.
ऐसे में अगर प्रति जीबी डेटा की कीमत 20 रुपये लगाई जाए तब भी प्रति बच्चे एक महीने में अतिरिक्त खर्च 4500 रुपये आता है.
इस लिहाज़ से दो बच्चों वाले परिवार में प्रतिमाह 9000 रुपये अतिरिक्त खर्च सिर्फ इंटरनेट का आएगा.
अब बात करते हैं, इस अतिरिक्त खर्च को ग्रामीण और शहरी भारत कैसे उठाएगा.
भारत की प्रति व्यक्ति आय लगभग 17 हज़ार रुपये है. लेकिन ये औसत आय है. ग्रामीण भारत और
मूल अधिकार का हनन
विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 26 करोड़ से अधिक लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं जो 200 रुपये प्रतिदिन से भी कम कमाते हैं.
और 200 रुपये प्रतिदिन से भी कम कमाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा कृषि पर निर्भर है और मौसमी घटनाओं की वजह से हर साल आर्थिक मार झेलता है.
ऐसे में सवाल उठता है कि प्रतिमाह छह हज़ार कमाने वाला शख़्स हर महीने 9 हज़ार रुपये अतिरिक्त इंटरनेट पर खर्च करेगा तो खाएगा क्या?
वीरेंद्र कुमार भी इसी आर्थिक समूह से आते हैं. साल की शुरुआत में ओलावृष्टि और भारी बारिश की वजह से अपनी फ़सल खोने वाले वीरेंद्र के लिए ये साल चलाना बेहद मुश्किल था.
लेकिन इस सबके बावजूद उनका सम्भ्रांत की पढ़ाई पर पाँच – छह हज़ार रुपये खर्च करना दर्शाता है कि वह नहीं चाहते हैं कि सम्भ्रांत का मन पढ़ाई से हमेशा के लिए उचट जाए.
शिक्षा के अधिकार क़ानून को जानने समझने वाले विशेषज्ञ अंबरीष राय मानते हैं कि भारत में शिक्षा को लेकर अब वह स्थिति नहीं है जहां घर वाले शिक्षा को लेकर सजग न हों.
वे कहते हैं, “घरवाले सजग हैं, इसी वजह से वे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं. घर के पशु बेच रहे हैं ताकि एक स्मार्टफोन लेकर बच्चे को दे सकें. ऐसे में अब ज़िम्मेदारी माँ – बाप की नहीं है. बल्कि अब सरकार को ये सुनिश्चित करना है कि देश का हर बच्चा अपने शिक्षा के अधिकार का इस्तेमाल कर सके.”
“इस तरह से सरकार जो भी रास्ता ले, उसे ये ध्यान रखना होगा कि शिक्षा एक मौलिक अधिकार है. देश में क़ानून है. और सरकार की नीतियों की वजह से किसी भी बच्चे की शिक्षा के अधिकार का हनन नहीं होना चाहिए. सरकार की ये ज़िम्मेवारी है कि वंचित तबके की देखभाल करे और उनका संरक्षण करे. सरकार प्रिवलेज़्ड के लिए नहीं बल्कि अंडर प्रविलेज़्ड के लिए होती है. गाँधी जी अंतिम आँख का आँसू पोंछने की बात करते थे. ये ज़िम्मेवारी है सरकार की.”
टूटते सपने और बढ़ती खाई
लेकिन सरकार जब सब कुछ जानने के बाद ये कहती है कि “सौभाग्य से सभी के पास एक मोबाइल है” और इनकी मदद से शिक्षा दी जा सकती है तो सवाल उठता है कि आख़िर सरकार किस भारत और किसके सौभाग्य की बात कर रही है.
शिक्षाविद् अनीता रामपाल मानती हैं कि ये सोचना ही काफ़ी असंवेदनशील है कि भारत जैसे आर्थिक रूप से असमान देश में स्मार्टफ़ोन और लैपटॉप जैसी डिवाइसों पर इंटरनेट के माध्यम से शिक्षा दी जा सकती है.
अनीता बताती हैं, “भारत में छात्र इस भयानक महामारी की वजह से पहले ही अभूतपूर्व स्तर पर चिंताएं झेल रहे हैं. कहीं किसी नौकरी चली गई है तो कहीं किसी की जान चली गई है. या लोगों की तबियत ख़राब है. और कई परिवार ख़ाने पीने की कमी भी झेल रहे हैं. ऐसे समय में उनके ऊपर एक ये चिंता भी डाल देना कि वे क्लास अटेंड नहीं कर पा रहे हैं…ये सोचने की ज़रूरत है कि इस सब का बच्चों पर क्या मानसिक असर होगा?”
एनसीईआरटी ने प्रधानाध्यापकों को जारी एक संदेश में लिखा है कि जिन छात्रों के पास स्मार्टफ़ोन न हो, उन्हें एमएमएस के ज़रिए दिशा निर्देश दिए जा सकते हैं.
इसी दौर में सिलेबस पूरा करने का दबाव झेल रहे बच्चों के बारे में अनीता कहती हैं, “ये बहुत ही क्रूर तंत्र है जो सोचता है कि ऑनलाइन एजुकेशन के रास्ते सिलेबस कवर किया जा सकता है. सिलेबस कवर करने की चीज़ नहीं होती है. सिलेबस डिस्कवर करना होता है. यशपाल जी ने बहुत पहले अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि सिलेबस की विषय-वस्तु को डिस्कवर करने की ज़रूरत होती है.”

“किसी को अलग थलग बिठाकर कहना कि उसकी शिक्षा हो रही है, ये उस छात्र के मूल अधिकार का उल्लंघन है. राइट टू एजुकेशन क़ानून के चैप्टर 5 पर नज़र डालें तो पता चलता है कि वह किस तरह की शिक्षा की बात करता है. गतिविधियों से, कोज और आपस में चर्चा से ही समझ बनायी जाती है. एक स्क्रीन के सामने बैठकर उसे घूरते रहना शिक्षा नहीं है.”
कहते हैं कि किसी से उसका सर्वस्व छीनने से भी ज़्यादा घातक उससे वो सब कुछ वापस पाने की उम्मीद छीन लेना है.
अब तक की शिक्षा व्यवस्था अपनी तमाम कमियों के बावजूद समाज के सबसे वंचित वर्ग को भी देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठने का ख़्वाब देखने की उम्मीद देती है. पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन कहे जाने वाले एपीजी अब्दुल कलाम इसके सबसे बड़ा उदाहरण हैं.
अब चुनाव सरकार को करना है कि वह किसी अन्य बच्चे में कलाम बनने की उम्मीद को ज़िंदा रखना चाहेगी या ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर स्मार्टफ़ोन न होने की वजह से उसे पहले ही रेस से बाहर करके उसकी उम्मीद का गला घुटते देखेगी. फ़ैसला सरकार को करना है.